२५० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाला कि केवल इन्द्रिय-सुख पशुओं और मनुष्यों को एक ही समान होता है इसलिये मनुष्य-जन्म की सार्थकता अथवा मनुष्य की मनुष्यता ज्ञान-प्राप्ति ही में है। सर प्राणियों के विषय में काया वाचा मन से सदैव ऐसी ही साम्यवृद्धि रख कर अपने सब कर्मों को करते रहना ही नित्य-मुक्तावस्था, पूर्ण योग या सिद्धावस्था है। इस अवस्या के जो वर्णन गीता में है, इनमें से बारहवें अध्यायवाले भकिमान् पुरुष के वर्णन पर टीका करते हुए ज्ञानेश्वर महाराज ने अनेक दृष्टान्त दे कर ब्रह्मभूत पुरुष की साम्यावस्था का अत्यंत मनोहर और चटकीला निरूपण किया है। और यह कहने में कोई हर्ज नहीं, कि इस निरूपण मैं गीता के चारों स्थानों में वर्णित घाही अवस्था का सार आ गया है ययाः हे पार्थ! जिसके हृदय में विष- मता का नाम तक नहीं है, जो शत्रु और मिन दोनों को समान ही मानता है। अथवा हे पांडव ! दीपक के समान जो इस बात का भेद-भाव नहीं जानता, कि यह मेरा घर है इसलिये यहाँ प्रकाश करूँ और वह पराया घर है इसलिये वहाँ अँधेरा करूँ बीज बोनेवाले पर और पेड़ को काटनेवाले परभी घृत जैसे समभाव से छाया करता है" इत्यादि (ज्ञा. १२. १८) । इसी प्रकार " पृथ्वी के समान वह इस बात का भेद बिलकुल नहीं जानता कि उत्तम का ग्रहण करना चाहिये और अधम का त्याग करना चाहिये, जैसे कृपालु प्राण इस बात को नहीं सोचता कि राजा के शरीर को चलाऊं और रक्ष के शरीर को गिराऊ जैसे जल यह भेद नहीं करता कि गौ की तृषा बुझाऊँ और ज्याघ्र के लिये विष वन कर उसका नाश करूँ; वैसे ही सब प्राणियों के विषय में जिसकी एक सी मित्रता है जो स्वयं कृपा की मूर्ति है, और जो · मैं और मेरा' का व्यवहार नहीं जानता। और जिसे सुख-दुःख का मान भी नहीं होता।" इत्यादि (ज्ञा. १२. १३)। अध्यात्मविद्या से जो कुछ अन्त में प्राप्त करना है, वह यही है। उपर्युक्त विवेचन से विदित होगा, कि सारे मोक्षधर्म के मूलभूत अध्यात्म- ज्ञान की परम्परा हमारे यहाँ उपनिपदों से लगा कर ज्ञानेश्वर, तुकाराम, रामदास, कबीरदास, सूरदास, तुलसीदास, इत्यादि आधुनिक साधु पुरुषों तक किस प्रकार अव्याहत चली आ रही है । परन्तु उपनिपदों के भी पहले यानी अत्यंत प्राचीन काल में ही हमारे देश में इस ज्ञान का प्रादुर्भाव हुआ था, और तव से क्रम क्रम से आगे उपनिषदों के विचारों की उन्नति होती चली गई है। यह वात पाठकों को भली भाँति समझा देने के लिये ऋग्वेद का एक प्रसिद्ध सूक्त भापान्तर सहित यहाँ अन्त में दिया गया है, जो कि उपनिषदान्तर्गत ब्रह्मविद्या का आधारस्तम्भ है । सृष्टि के अगम्य भूलतत्त्व और उसले विविध श्य सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में जैसे विचार इस सूक्त में प्रदर्शित किये गये हैं जैसे प्रगल्म, स्वतंत्र और मूल तक की खोज करनेवाले तत्वज्ञान के मार्मिक विचार अन्य किसी भी धर्म के मूलग्रन्थ में दिखाई
- गने घर महाराज के 'शानेश्वरी ' ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद श्रीयुत रघुनाथ माधव
भगाई, पी. ए. जज, नागपुर ने किया है; और यह ग्रन्थ उन्हों से मिल सकता है।