अध्यात्म। २४७ यद्यपि 'विपाद ' शब्द का उपयोग पुरुषसूक्त में किया गया है, तथापि उसका अर्थ 'अनन्तही इष्ट है। वस्तुतः देखा जाय तो देश और काल, माप और तौल या संख्या इत्यादि सय नाम-रूप के ही प्रकार है और यह बतला चुके हैं कि परनामा इन सब नाम-रूपों के परे है। इसी लिये उपनिपदों में ग्रह-स्वरूप के ऐसे वर्णन पाये जाते हैं, कि जिस नाम-ल्पात्मक काल से सब कुछ प्रसित है, उस 'काल' को भी प्रसनेवाला या पचा जानेवाला जो तत्व है, वही परमप है (मै. ६.१५); और 'म तदासयते सूर्यो न शशांको न पावका -परमेश्वर को प्रकाशित करनेवाला सूर्य, चन्द्र, अग्नि इत्यादिनों के समान कोई प्रकाशक साधन नहीं है, किन्तु यह स्वयं प्रकाशित है-इत्यादि प्रकार के जो वर्णन उपनिषदों में और गीता में हैं उनका भी अर्थ वही है (गी. १५.६ कर. ५. १५; थे. ६.१४) ।सूर्य-चन्द्र-तारागण सभी नाम-रूपात्मक विनाशी पदार्थ हैं । जिसे 'ज्योतिपां ज्योतिः (गी. १३. १७ पृह. ४. ४. १६) कहते हैं, वह स्वयंप्रकाश और ज्ञानमय वह इन सब के परे अनन्त भरा हुआ है। उसे दूसरे प्रकाशक पदार्थों की अपेक्षा नहीं है और उप- निषदों में तो स्पष्ट कहा के कि सूर्य-चन्द्र आदि को जो प्रकाश प्राप्त है। यह भी उसी स्वयंप्रकाश ब्रह्मा से ही मिला है (मुं. २. २. १०) । आधिभौतिक शासों की युक्तियों से इन्द्रियगोचर होनेवाला अतिसूक्ष्म या अत्यन्त दूर का कोई पदार्घ लीजिये-ये सब पदार्थ दिकाल आदि नियमों की कैद में बंधे हैं, अतएव उनका समावेश 'जगत्' ही में होता है । सचा परमेश्वर उन सब पदार्थों में रह कर भी उनसे निराला और उनसे कहीं अधिक व्यापक तया नाम-रूपों के जाल से स्वतन्त्र है। अतएव फेवल नाम-रूपों का ही विचार करनेवाले आधिभौतिक शास्त्रों की युक्तियाँ या साधन वर्तमान दशा से चाहे सौगुने अधिक सूक्ष्म और प्रगल्म हो जाये, तथापि सृष्टि के मूल 'अमृत तत्व' का उनसे पता लगना सम्भव नहीं। उस अविनाशी, सवि. कार्य और अमृत तत्व को केवल अध्यात्मशास्त्र के ज्ञानमार्ग से ही हूँढ़ना चाहिये। यहाँ तक अध्यात्मशास्त्र के जो मुख्य मुख्य सिद्धान्त बतलाये गये औरशास्त्रीय रीति से उनकी जो संक्षिप्त उपपत्ति यतलाई गई, उनसे इन यातों का स्पष्टीकरण हो जायगा, कि परमेश्वर के सारे नाम-रूपात्मक व्यक्त स्वरूप केवल मायिक और अनित्य है तथा इनकी अपेक्षा उसका अन्यक्त खरूप श्रेष्ठ है, उसमें भी जो निर्गुण अर्थात् नाम- रूप-रहित है वही सब से श्रेष्ठ है और गीता में बतलाया गया है कि प्रज्ञान से निगुण ही सगुण सा मालूम होता है। परन्तु इन सिद्धान्तों का केवल शब्दों में प्रथित करने का कार्य कोई भी मनुष्य कर सकेगा जिसे सुदैव से हमारे समान चार अक्षरों का कुछ ज्ञान होगया है-इसमें कुछ विशेषता नहीं है । विशेपता तो इस बात में है, कि ये सारे सिद्धान्त बुद्धि में या जावे, मन में प्रतिविम्भित हो जाये, हृदय में जम जावें और नस नस में समा जावें। इतना होने पर परमेश्वर के स्वरूप की इस प्रकार पूरी पहचान हो जाये कि एक ही परमस सब प्राणियों में. व्यास है, और उसी भाव से संकट के समय भी पूरी समता से वर्ताव करने का अचल स्वभाव
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