२४५ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। का आत्मा एवं ब्रह्म मूल में एक ही है, दो नहीं।" इस श्लोक का 'मिथ्या ' शन्द यदि किसी के कानों में चुभता हो, तो वह वृहदारण्यक उपनिषद् के अनुसार इसके तीसरे चरण का • ब्रहामृतं जगत्सत्यम् ' पाठान्तर खुशी से कर ले; परन्तु पहले ही बतला चुके हैं कि इससे भावार्य नहीं बदलता है। फिर भी कुछ वेदान्ती इस यात को लेकर फिजूल झगड़ते रहते हैं कि समूचे दृश्य जगन् के अदृश्य किन्तु नित्य परब्रह्मरूपी मूलतत्व को सत् (सत्य) कहें या असत् (असत्य-अनृत)। प्रतएव इसका यहाँ थोड़ा सा खुलासा किये देते हैं कि इस बात का ठीक ठीक बीज क्या है। इस एक ही सत् या सत्य शब्द के दो भिड मिन अर्थ होते हैं, इसी कारण यह झगड़ा मचा हुआ है और यदि ध्यान से देखा जावे कि प्रत्येक पुरुष इस सत्' शब्द का किस अर्थ में उपयोग करता है, तो कुछ भी गड़बड़ नहीं रह जाती। क्योंकि यह भेद तो सभी को एक सा मंजूर है कि ग्रह अश्य होने पर भी नित्य है, और नाम-रूपात्पक जगत घश्य होने पर भी पल-पल में बदलनेवाला है। इस सत् या सत्य शब्द का व्यावहारिक अर्थ है (१) आँखों के आगे अभी प्रत्यक्ष देख पड़नेवाला अयांत व्यक (फिर कल उसका दृश्य स्वरूप चाहे बदले चाहे न बदले); और दूसरा अर्थ है (२) वह अव्यक्त स्वरूप कि जो सदैव एक सा रहता है, आँखों से भले ही न देख पड़े पर जो कभी न बदले। इनमें से पहला अर्थ जिनको सम्मत है, वे प्रास्त्रों से दिखाई देनवाले नाम-रूपात्मक जगन् को सत्य कहते हैं। और परब्रह्म को इसके विरुद्ध प्रांत आँखों से न देख पड़ने- वाला अतएव असत् अथवा असत्य कहते हैं। उदाहरणार्य, तैत्तिरीय उपनिषद् में दृश्य सृष्टि के लिये 'सत्' और जो दृश्य सृष्टि से परे है, उसके लिये 'त्यत् ' (अर्थात् जो कि परे है) अथवा 'अन्त' (आँखों को न देख पड़नेवाला) शब्दों का उप- योग करके ब्रह्म का वर्णन इस प्रकार किया है कि जो कुछ मूल में या आरम्म में था वही द्रव्य " सच त्यच्चाभवत् । निरुक्तं चानिरुक्तं च । निजयनं चानिलयनं च । विज्ञानं चाविज्ञानं च । सत्यं चानृतं च !" (ते. २.६)-सत्र ( आँखों से देख पड़नेवाला) और वह (जो पर है), वाच्य और अनिवांच्या साधार और निराधार, ज्ञात और अविनात (अज्ञेय), सत्य और अनृत, इस प्रकार विधा बना हुआ है। परन्तु इस प्रकार नहा को अनृत' कहने से अन्त का अर्थ झूठ या असत्य नहीं है, क्योंकि आगे चल कर तैत्तिरीय उपनिपद में ही कहा है कि " यह अन्त ब्रह्म जगत् की प्रतिष्ठा' अथवा आधार है, इसे और दूसरे आधार की अपेक्षा नहीं है- एवं जिसने इसको जान लिया वह अभय हो गया ।" इस वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि शब्द-भेद के कारण भावार्थ में कुछ अन्तर नहीं होता है। ऐसे ही अन्त में कहा है कि " असहा इदमय आसीत् " यह सारा जगत् पहले अलत (ब्रह्म) था, और ऋग्वेद के (१०. १२६. ४) वर्णन के अनुसार, आगे चल कर उसी से सत्यानी नाम-रूपात्मक व्यक्त जगत् निकला है (ते. २.७)। इससे भी स्पष्ट ही हो जाता है कि यहाँ पर असत् ' शब्द का प्रयोग अव्यक्त अर्थात् आँखों से न देख पड़नेवाले' के
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२८३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।