गीतारहस्य के विषयों की अनुक्रमणिका । २४ दसवाँ प्रकरण-कर्मविपाक और आत्मस्वातन्त्र्य । मायासृष्टि और प्राष्टि-देह के फोश मोर धर्माश्रयीभूत लिमशरीर- धर्म, नाम-रूप धार माया का पारस्परिक सम्बन्ध-कर्म की और माया की प्यास्या-माया का मूल अगम्य , इसलिये यद्यपि माया परतन्त्र हो तथापि अनादि ई-मायात्मक प्रकृति का विस्तार अपवा सृष्टि ही कर्म ई-मतएव कर्म भी अनादि है-फर्म के एपसगिटत प्रयत्न -परमेश्वर इसमें हस्तक्षेप नहीं करता और फर्मानुसार ही फल देता है (पृ. २६७) -कर्मयन्ध को सुद्धता और प्रवृत्ति- स्वातल्यवाद की प्रस्तावना-कर्मविभाग समित, प्रारब्ध और क्रियमाण- प्रारब्ध-कर्मणां भोगादेव चयः'वेदान्त को मीमांसकों का नशाम्यसिद्विवाद प्रमाल -ज्ञानयिना कर्मपन्ध से छुटकारा नहीं-ज्ञान शब्द का अर्थ-ज्ञान-प्रालि कर लेने के लिये शारीर पाना स्वतन्त्र है (पृ. २८२)-परन्तु कर्म करने के साधन उसके पास निजी नहीं, इस कारण उतने ही के लिये परायलम्बी है- मो-मालवर्ष वाचरित स्वल्प कर्म भी प्यर्थ नहीं जाता-मसः कमी न कभी दीर्घ सोग करते रहने से सिद्धि पश्य मिलती है-फर्मय का स्वरूप-कर्म महीं हटते, फलाशा को घोड़ो-फर्म का बन्धमत्व मन में है, न कि फर्म में इसलिये ज्ञान कभी हो, उसका फल मोचा ही मिलेगा--तथापि उसमें भी पन्त- काल का महाव (पृ. २८६)-कर्मकाराट और ज्ञानकायह-श्रीतयश और स्मार्त- पज्ञ - फर्मप्रधान गाईस्थ्यवृत्ति - उसी के दो भेद, ज्ञानयुक्त शोर ज्ञानरहित - इसके अनुसार भिन्न-भिज गति -देवयान प्रार पितृयाग - फालयाचक या देवता- पाचक?-तीसरी गरक की गति -जीवन्मुक्तावस्था का वर्णन । ... पृ. २६०-३०० ग्यारहवाँप्रकरण-संन्यास और कर्मयोग। अर्जुन का यह प्रश्न कि, मंन्यास और कर्मयोग दोनों में श्रेष्ठ मार्ग कौन सा -इस पम्प के सगान ही पश्चिमी पन्य-संन्यास और कर्मयोग के पर्याय शब्द सन्यास शब्द का अर्थ - कर्मयोग संन्यासमार्ग का नहीं है, दोनों स्वतन्त्र हैं- इस सम्बन्ध में टीकाकारों की गोलमाल-गीता का यह स्पष्ट सिदान्त कि, इन दोनों मागी में कर्मयोग ही श्रेष्ट है -संन्यासमार्गीय टीकाकारों का किया दुखा विप- पास-उस पर उत्तर -अर्जुन को पज्ञानी नहीं मान सकते (पृ. ३१२)-इस बात ये गीता में निर्दिए कारण कि, कर्मयोग ही श्रेष्ठ क्यों है-माचार पनादि काल से द्विविध रहा है, प्रतः यह श्रेष्ठता का निर्णय करने में उपयोगी नही है- जनक की तीन और गीता की दो निटा-फमा को बन्धक कहने से ही, यह सिद्ध नहीं होता कि, उन्हें छोड़ देना चाहिये फनाशा छोड़ देने से निर्वाह हो जाता हैकर्म छूट नहीं सकते -कर्म बोड़ देने पर खाने के लिये भी न मिलेगा-ज्ञान हो जाने पर अपना कर्तव्य न रहे, अथवा वासना का तय हो जाय, तो भी फर्म नहीं छूटते-प्रतश्व ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् भी निःस्वार्थ शुद्धि से कर्म अवश्य -
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