अध्यात्म २३६ निरपेक्ष और नित्य स्वरूप है। मनुष्य की वर्तमान इन्द्रियों की अपेक्षा यदि उसे न्यूना- धिक इन्द्रियाँ प्राप्त हो जाये, तो यह सृष्टि उसे जैसी आज कल देख पड़ती है वैसी हीन दीखती रहेगी। और यदि यह ठीक है तो जब कोई पूछे कि अष्टा की देखने- वाले मनुष्य की इन्द्रियों की अपेक्षा न करके यतलाओ कि सृष्टि के मूल में जो तत्व है उसका नित्य और सत्य स्वरूप क्या है, तय यही उत्तर देना पड़ता है कि वह मूलतय है तो निर्गुगा, परन्तु मनुष्य को सगुण दिखाई देता है-यह मनुष्य की इन्द्रियों का धर्म है, न कि मूलयस्तु का गुण प्राधिभौतिक शास में उन्हीं पाता की जांच होती है कि जो इन्द्रियों को गोचर हुआ करती है और यही कारण है कि वहीं इस ढंग के प्रम होते ही नहीं। परन्तु मनुष्य और उसकी इन्द्रियों के नष्ट- प्राय हो जाने से यह नहीं कह सकते कि ईश्वर का भी सफाया हो जाता है अथवा मनुष्य को यह पमुक प्रकार का देख पड़ता है इसलिये उसका निकालाबाधित, नित्य और निरपेन स्वरूप भी वही होना चाहिये। भतएव जिल अध्यात्मशास्त्र में यह विचार करना होता है कि जगत के मूल में वर्तमान सत्य का मूल स्वरूप क्या है, उसमें मानवी इन्द्रियों की सापेक्ष ष्टि छोड़ देनी पड़ती है और जितना हो सके उतना, पुदि से ही अन्तिम विचार करना पड़ता है। ऐसा करने से इन्द्रियों को गोचर होनेवाले सभी गुण माप की माप छूट जाते हैं और यह सिद्ध हो जाता है कि ग्राम का नित्य स्वरूप इन्द्रियातीत अर्थात् निर्गुण एवं सय में श्रेष्ठ है । परन्तु श्रय प्रश्न होता है कि जो निर्गुण है, उसका वर्णन करेगा ही फोन, और किस प्रकार करेगा? इसी लिये प्रतिधेदान्त में यह सिदान्त कियागया है किपरमा का अन्तिम अर्थात् निरपेक्ष और निल स्वरूप निर्गुण तो है ही, पर अनियांच्य भी थे और इसी निर्गुण स्यरूप में मनुष्य को अपनी इन्द्रियों के योग से सगुणा एश्य की झलक देख पड़ती है। अब यहाँ फिर प्रश्न होता है कि, निर्गुण को सगुण करने की यह शक्ति इन्द्रियों ने पाकहाँ से मी? इस पर अद्वैत घेदान्तशाल का यह उत्तर है कि मानवी ज्ञान को गति यहीं तक है, इसके आगे उसकी गुजर नहीं, इसलिये यह इन्द्रियों का अज्ञान है और निर्गुण परमहा मैं सगुण जगत् का श्य देखना उसी अज्ञान का परिणाम है अथवा यही इतना ही निखित अनुमान करके निश्चिन्त हो जाना पड़ता है कि इन्द्रियाँ भी परमेश्वर की सृष्टि यी ही हैं, इस कारण यह सगुण सृष्टि (प्रकृति) निर्गुण परमेश्वर की ही एक देवी साया है (गी. ७. १४) । पाटकों की समझ में अब गीता के इस वर्णन का तत्व प्रा जावेगा, कि केवल इन्द्रियों से देखनेवाले अप्रवुद्ध लोगों को परमेश्वर व्यक्त और सगुण देख पड़े सही; पर उसका सच्चा और श्रेष्ट स्वरूप निर्गुण है. उसका ज्ञान-सृष्टि से देखने में ही ज्ञान की परमावधि है (गी. ७.१४,२४,२५) । इस प्रकार निर्णय तो कर दिया कि परमेश्वर मूल में निर्गुण है और मनुष्य की इन्द्रियों को उसी में सगुण सृष्टि का विविध दृश्य पड़ता है। फिर भी इस बात का थोड़ा सा खुलासा कर देना आवश्यक है कि उक्त सिद्धान्त में निर्गुण' शब्द का अर्थ क्या समझा जाये । यह सच है कि इषा की लहरों पर शब्द-रूप
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