अध्यात्म। २३७ अव्यक्त द्रव्य से नाना प्रकार की व्यक्त सगुण सृष्टि क्योंकर उपजी । पहले वतला पाये है कि सांख्यों ने तो नितुंग पुरुष के साथ ही त्रिगुणात्मक अर्थात् सगुण प्रकृति को अनादि और स्वतन्त्र मान कर, इस प्रश्न को इल कर लिया है। किन्तु यदि इस प्रकार सगुण प्रकृति को स्वतन्त्र मान लें तो जगत् के मूलतत्व दो हुए जाते हैं। और ऐसा करने से उस अद्वैत मत में बाधा पाती है कि जिसका ऊपर अनेक कारणों के द्वारा पूर्णतया निश्चय कर लिया गया है । यदि सगुण प्रकृति को स्वतन्त्र नहीं मानते हैं तो यह बतलाते नहीं बनता कि एक ही मूल निगुण द्रव्य से नानाविध सगुण सृष्टि कैसे उत्पन्न हो गई । क्योंकि सत्कार्य-चाद का सिद्धान्तं यह है कि निर्गुण से सगुण --जो कुछ भी नहीं है उससे और कुछ का उपजना शक्य नहीं है और यह सिद्धान्त अद्वैत-वादियों को ही मान्य हो चुका है इसलिये दोनों ही ओर अड़चन है । फिर यह उलझन सुलझे कैसे ? घिना अद्वैत को छोड़े ही, निर्गुण से सगुण की उत्पति होने का मार्ग यतलाना है और सत्कार्य वाद की दृष्टि से यह तो रुका हुआसाही है। सचा पंच हैसी वैसी उलझन नहीं है। और तो क्या, कुछ लोगों की समझ में, अद्वैत सिद्धान्त के मानने में यही ऐसी अड़चन है जो सय से मुख्य, पेचीदा और कठिन है। इसी पढ़चन से छड़क कर ये द्वैत को साकार कर लिया करते हैं। किन्तु मद्धती परिठतों ने अपनी चुद्धि के द्वारा इस विकट अड़चन के फन्दे से छूटने के लिये भी एक युक्तिसङ्गत बेजोड़ मार्ग इंढ़ लिया है। वे कहते हैं कि सत्कार्य-वाद अथवा गुगापरिणाम-बाद के सिद्धान्त का उपयोग तम होता है जब फार्य और कारण, दोनों एक ही श्रेणी के प्रथया एक ही वर्ग के होते हैं और इस कारण अद्वैती वेदान्ती भी इसे स्वीकार कर लेंगे कि सत्य और निर्गुण नल से, सत्य और सगुण माया का उत्पन्न होना शक्य नहीं है। परन्तु यह स्वीकृति उस समय की है, जब कि दोनों पदार्थ सत्य हो; जहाँ एक पदार्थ सत्य है पर दूसरा उसका सिर्फ एश्य है, वहाँ सत्कार्य-चाद का उपयोग नहीं होता । सांख्य मत-बाले 'पुरुष' के समान ही प्रकृति को भी स्वतन्त्र और सत्य पदार्थ मानते हैं। यही कारण है जो वे निर्गुण पुरुष से सगुण प्रकृति की उत्पत्ति का विवेचन सत्कार्य-पाद के अनुसार कर नहीं सकते। किन्तु अद्वैत वेदान्त का सिद्धान्त यह है कि माया अनादि बनी रहे, फिर भी वह सत्य और स्वतन्त्र नहीं है, यह तो गीता के कथनानुसार 'मोक्ष' 'ज्ञान' प्रथया इन्द्रियों को दिखाई देनेवाला दृश्य है। इसलिये सत्कार्य-बाद से जो प्रादेप निप्पन हुआ था, उसका उपयोग प्रद्वैत सिद्धान्त के लिये किया ही नहीं जा सकता। याप से लड़का पैदा हो, तो कहेंगे कि वह इसके गुण-परिणाम से हुआ है। परन्तु पिता एक व्यक्ति है और जब कभी वह बचे का, कभी जवान का धौर कभी पुढे का स्वाँग बनाये हुए देख पड़ता है, तब इम सदैव देखा करते हैं कि इस व्यक्ति में और इसके अनेक स्वाँगों में गुण-परिणामरूपी कार्य-कारणभाव नहीं रहता। ऐसे ही जब निश्चित हो जाता है कि सूर्य एक ही है, तव पानी में आँखों को दिखाई देनेवाले उसके प्रतिविम्ब को हम श्रम कह देते हैं और उसे
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