अध्यात्मा २३५ 'मेरा साधा स्वरूप अव्यय और अज है। (गी. ७.२५), तथापि भगवान ने कहा है कि मैं सारे जगत को उत्पन्न करता है। (४.६)। परन्तु इन वर्णनों के मर्म को पिना समझ-बूझे कुछ पण्डित लोग इनको शब्दशः सच्चा मान लेते हैं और फिर इन्हें ही मुख्य समझ कर यह सिद्धान्त किया करते हैं कि द्वैत अथवा विशिष्टाद्वैत मत का उपनिपदों में प्रतिपादन है। वे कहते है कि यदि यह मान लिया जाय कि एक ही निर्गुण मम सर्वत्र च्यात हो रहा है, तो फिर इसकी उप- पति नहीं लगती कि इस अधिकारी प्रा से विकार-रहित नाशवान् सगुण पदार्थ कैसे निर्मित हो गये । क्योंकि नाम-रूपात्मक सृष्टि को यदि 'माया' कहें तो निर्गुण बस से सगुण माया का उत्पदा होना ही तर्कप्टष्टया शक्य नहीं है। इससे अद्वैत-बाद लँगड़ा हो जाता है । इसले तो कहीं अच्छा यह होगा कि सांख्यशास्त्र के मतानुसार प्रकृति के सम्श नाम-रूपात्मक व्यक्त सृष्टि के किसी सगुण परन्तु व्यक्त रूप को नित्य मान लिया जाये और उस व्यक्त रूप के अभ्यन्तर में परवमरूप कोई दूसरा नित्य तत्व ऐसा ओत प्रोत भरा हुआ रखा जाये, जैसा कि किसी पंच की नली में भाफ रहती है (पृ. ३.७); एवं इन दोनों में वैसी ही एकता मानी जाये जैसी कि दाडिम या अनार के फल के भीतरी दानों के साथ रहती है। परन्तु हमारे मत में उपपिपी के तात्पर्य का ऐसा विचार करना योग्य नहीं है। उपनिषदों में कहीं कहों द्वैती और कहीं कहीं अद्वैती पान पाये जाते हैं, सो इन दोनों की कुछ न कुछ एकवाक्यता करना तो ठीक है परन्तु अद्वैत-बाद को मुख्य समझने और यह मान लेने से, कि जय निगुण महा सगुण होने लगता है तब उतने ही समय के लिये मायिक ईत की स्थिति प्राप्त सी हो जाती है, सब वचनों की जैसी व्यवस्था लगती है, वैसी व्यवस्था ईत पत को प्रधान मानने से लगती नहीं है। उदाहरण लीजिये, इस सत् त्वमसि' वाक्य के पद का अन्वय द्वैती मतानुसार कभी भी ठीक नहीं लगता, तो क्या इस अड़चन को द्वैत मत-वालों ने समझ ही नहीं पाया? नहीं, समझा ज़रूर है, तभी तो वे इस महावाक्य का जैसा-तेला अर्थ लगा कर अपने मन को समझा लेते हैं। 'तत्वमसि' को द्वैतवाले इस प्रकार अल- झाते हैं-तत्वम् = तस्य त्वम् अर्थात उसका तू है, कि जो कोई तुझसे मिस है। नयही नहीं है। परन्तु जिसको संस्कृत का थोड़ा सा भी ज्ञान है, और जिसकी बुद्धि आग्रह में बंध नहीं गई है, वह तुरन्त ताड़ लेगा कि यह खोंचा-तानी का अर्थ ठीक नहीं है। कैवल्य उपनिपद् (१.१६) में तो "सत्यमेव त्वमेव तत्" इस प्रकार 'तत्' और 'त्वम् ' को उलट-पलट कर उक्त महावाक्य के अद्वैतप्रधान होने का ही सिद्धान्त दर्शाया है। अब शोर क्या बतलावे ? समस्त उपनिषदों का बहुत सा भाग निकाल डाले बिना अथवा जान-बूझ कर उस पर दुर्लक्ष्य किये बिना, उपनिपद शास्त्र में प्रति को छोड़ और कोई दूसरा रहस्य बतला देना सम्भव ही नहीं है। परन्तु ये वाद तो ऐसे हैं कि जिनका कोई प्रोर-चोर ही नहीं तो फिर यहाँ हम इनकी विशेष चर्चा क्यों करें ? जिन्हें अहत के अतिरिक अन्य मत रुचते हों, वे खुशी से उन्हें स्वीकार
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