२३२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाल। सात्मक वर्णन इस अर्थ को व्यक्त करने के लिये किया गया है कि पूर्ण परब्रह्म का ज्ञान केवल अपने अनुभव पर ही निर्भर है। वह वर्णन इस प्रकार है:-"अविज्ञात विज्ञान विज्ञातमविजानताम् " (केन. २.३)-जी कहते हैं कि हमें परब्रह्म का ज्ञान हो गया, उन्हें उसका ज्ञान नहीं हुआ है और जिन्हें जान ही नहीं पड़ता कि इमने उसको नान लिया, उन्हें ही वह ज्ञात हुआ है। क्योंकि जय कोई कहता है कि मैं ने परमेश्वर को जान लिया, तव उसके मन में यह द्वैत बुद्धि उत्पन्न हो जाती है कि मैं (ज्ञाता) जुदा हूँ और जिले में ने जान लिया, वह (ज्ञेय) अझ अलग है। अतएव उसका ब्रह्मात्मश्यरूपी अद्वैती अनुभव उस समय उतना ही कच्चा भार अपूर्ण होता है। फलतः उसी के मुंह से सिद्ध होता है कि कहनेवाले को सचे ब्रह्म का ज्ञान हुआ नहीं है । इसके विपरीत 'मैं' और 'ब्रा' का द्वैती भेद मिट जाने पर ब्रह्मात्मश्य का जव पूर्ण अनुभव होता है, तब उसके मुंह से ऐसी भापा का निकलना ही सम्भव नहीं रहता कि मैं ने उसे (अर्याद अपने से मिन्न भार कुछ) जान लिया ।' अतएव इस स्थिति में, अर्थात् जब कोई ज्ञानी पुरुप यह यत. लाने में असमर्थ होता है कि मैं ब्रह्म को जान गया, तय कहना पड़ता है कि उसे ब्रह्म का ज्ञान हो गया । इस प्रकार द्वैत का विलकुल लोप हो कर, परब्रह्म में ज्ञाता का सर्वया रंग जाना, लय पा लेना, विलकुल घुल जाना, अथवा एक जी हो नाना सामान्य रूप में दिल तो दुप्कर पड़ता है। परन्तु हमारे शास्त्रकारों ने अनुभव से निश्चय किया है कि एकाएक दुर्घट प्रतीत होनेवाली निर्वाण' स्थिति अभ्यास और वैराग्य से अन्त में मनुष्य को साध्य हो सकती है। मैं 'पनरूपी द्वैतभाव इस स्थिति में दूब जाता है, नष्ट हो जाता है। अतएव कुछ लोग शंका किया करते हैं कि यह तो फिर आत्म-नाश का ही एक तरीका है। किन्तु ज्याही समझ में भाया कि यद्यपि इस स्थिति का अनुभव करते समय इसका वर्णन करते नहीं बनता है, परन्तु पीछे से उसका सरण हो सकता है, त्योंही उक शंका निर्मूल हो जाती है। इसकी अपेक्षा और मी अधिक प्रदल प्रमाण साधु-सन्तों का अनुभव है। बहुत प्राचीन सिद्ध पुरुपों के अनुभव की बातें पुरानी हैं, उन्हें जाने दीजिये विलकुल अभी के प्रसिद्ध भगवद्भक तुकाराम महाराज ने भी इस परमावधि की स्थिति का वर्णन शालद्वारिक भाषा में बड़ी खूबी से धन्यतापूर्वक इस प्रकार ध्यान से और समाधि से प्राप्त होनेवाली अद्वैत की अथवा ममेदभाव को यह अवस्था nitrous-oxide gas नामक एक प्रकार की रासायनिक वायु को मंघने से भी प्राप्त हो जाया करती है। इसी वायु को लाफिंग गैस ' भी कहते हैं। Wan to Believe and Other Essays on Popular Philosophy. by William James, pp. 294. 298. परन्तु यह नकली अवस्था है । समाधि से जो अवस्था प्राप्त होती है, वह सची - असली है। यही इन दोनों में महत्त्व का भेद है। फिर भी यहाँ उसका व्लेख हमने इसलिये किया है कि इस कृत्रिम अवस्था के हवाले से अभेदावत्या के अस्तित्व के विषय में कुछ भी वाद नहीं रह जाता।
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