अध्यात्म। २२१ करें तो परवाहा का अथवा आत्मा का भी अज्ञेयत्व स्वीकार किये बिना गति ही नहीं रहती। परन्तु प्रम इस प्रकार अझंय और निर्गुण अतएव इन्द्रियातीत हो, तो भी यह प्रतीति हो सकती है कि परपस का भी वही स्वरूप है, जो कि हमारे निर्गुण तथा अनिवाच्य आत्मा का है और जिसे हम साक्षात्कार से पहचानते हैं। इसका कारण यह है कि प्रत्येक मनुष्य को अपने आत्मा की साक्षात् प्रतीति होती ही है। अतएव सब यह सिद्धान्त निरकनहीं होसकता कि ब्रह्म और भात्माएक- स्वरूपी हैं। इस दृष्टि से देखें तो प्रा-स्वरूप के विषय में इसकी अपेक्षा कुछ अधिक नहीं कहा जा सकता कि ब्रह्म मात्म-स्वरूपी है शेप यातों के सम्बन्ध में अपने अनुभव को ही पूरा प्रमाण मानना पड़ता है। किन्तु घुद्धिगम्य शाीय प्रतिपादन में जितना शब्दों से हो सकता है, उतना खुलासा कर देना आवश्यक है। इसी लिये यद्यपि ब्रस सर्वत्र एक सा ध्यास, अज्ञेय और अनिर्वाच्य है तो भी जड़ सृष्टि का और प्रात्मस्वरूपी ग्रातत्व का भेद व्यक्त करने के लिये, प्रात्मा के सानिध्य से जड़ प्रकृति में चैतन्यरूपी जो गुण हमें गोचर होता है, उसी को प्रात्मा का प्रधान लक्षण मान कर अध्यात्मशास्त्र में आत्मा और प्रम दोनों को चिद्रुपी या चैतन्यरूपी कहते हैं। क्योंकि यदि ऐसा न करें तो प्रात्मा और प्रम दोनों ही निगुण, निरंजन एवं अनिर्वाच्य होने के कारण उनके रूप को घर्णन करने में या तो चुप्पी साध जाना पड़ता है, या शब्दों में किसी ने कुछ वर्णन किया तो “ नाहीं नाही" का यह मन्य रटना पड़ता है कि " नेति नेति । एतस्मादन्यत्परमारित " यह नहीं है, यह (ग्रह) नहीं है, (यह तो नाम-रूप हो गया), सच्चा ग्रा इससे परे और ही है। इस नकारात्मक पाठ का यावर्तन करने के अतिरिक्त और दूसरा मार्ग ही नहीं रह जाता (पू. २.३.६)। यही कारण है जो सामान्य रीति से बम के स्वरूप के लक्षण चित् (ज्ञान), सत् (सत्तामात्रत्व अपवा अस्तित्व) और आनन्द बतलाये जाते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि ये लक्षण अन्य सभी लक्षणों की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं। फिर भी स्मरण रहे कि शब्दों से वास्वरूप की जितनी पहचान हो सकती है, उतनी ही करा देने के लिये ये लक्षण भी कहे गये हैं। वास्तविक प्रसास्वरूप निर्गुण ही है, उसका ज्ञान होने के लिये उसका अपरोक्षानुभव ही होना चाहिये। यह अनुभव कैसे हो सकता है इन्द्रियातीत होने के कारण अनिर्वाच्य ग्रह के स्वरूप का अनुभव ब्रह्मनिष्ठ पुरुष को कब और कैसे होता है-इस विषय में हमारे शास्त्रकारों ने जो विवेचन किया है, उसे यहाँ संक्षेप में बतलाते है। मा पीर मात्मा की एकता के उक्त समीकरण को सरल भाषा में इस प्रकार ध्यक्त कर सकते हैं कि जो पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में है जब इस प्रकार महात्मय का अनुभव हो जावे, तप यह भेद-भाव नहीं रह सकता कि ज्ञाता अर्थात् द्रष्टा मित वस्तु है और ज्ञेय अर्थात् देखने की वस्तु भलग है। किन्तु इस विषय में शक्षा हो सकती है कि मनुष्य जब तक जीवित है, तब तक उसकी नेन
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२६८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।