२२६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। वही बात्मा होगा। छान्दोग्य उपनिषद् के सातवें अध्याय में इसी युक्ति से काम लिया गया है और सनत्कुमार ने नारद से कहा है कि वाणी की अपेक्षामन अधिक योग्यता का (भूयस्) है. मन से ज्ञान, ज्ञान से वल और इसी प्रकार चढ़ते-बढ़ते जब कि आत्मा सब से श्रेष्ठ (भूमन्) है, तब श्रात्मा ही को परब्रह्म का संचा स्वरूप कहना चाहिये । ग्रेज़ अन्यकारों में प्रीन ने इसी सिद्धान्त को माना है। किन्तु उसकी युक्तियाँ कुछ कुछ भिन्न हैं। इसलिये यहाँ उन्हें संक्षेप से वेदान्त की परिभापा में बतलाते हैं। ग्रीन का कथन है कि हमारे मन परइन्द्रियों के द्वारा बाह्य नाम-रूप के जो संस्कार हुआ करते हैं, उनके एकीकरण से ग्रात्मा को ज्ञान होता है। उस ज्ञान के मेल के लिये बाह्य सृष्टि के भिन्न भिन्न नाम-रूपों के मूल में भी एकता से रहनेवाली कोई न कोई वस्तु होनी चाहिये, नहीं तो आत्मा के एकीकरण से नो ज्ञान उत्पन्न होता है वह स्वकपोल-कल्पित और निराधार हो कर विज्ञान-वाद के समान असत्य प्रमाणित हो जायगा। इल 'कोई न कोई वस्तु को हम ब्रह्म कहते हैं, भेद इतना ही है कि कान्ट की परिभापा को मान कर ग्रीन उसको वस्तु. तत्व कहता है। कुछ भी कहो, अन्त में वस्तुतत्व (ब्रह्म) और भात्मा ये ही दो पदार्थ रह जाते हैं, कि जो परस्पर के मेल के है। इन में से प्रात्मा' मन और बुद्धि से परे अर्थात् इन्द्रियातीत , तथापि अपने विश्वास के प्रमाण पर हम माना करते हैं कि आत्मा जड़ नहीं है वह या तो चिद्रूपी है या चैतन्यरूपी है। इस प्रकार प्रात्मा के स्वरूप का निश्चय करके देखना है कि वाह्यसृष्टि के ब्रह्म का स्वरूप क्या है । इस विषय में यहाँ दो ही पक्ष हो सकते हैं; यह ब्रह्म या वस्तुतत्व (8) मात्मा के स्वरूप का होगा या (२) आत्मा से भिन्न स्वरूप का । क्योंकि ब्रह्म और मात्मा के सिवा अव तीसरी वस्तु ही नहीं रह जाती । परन्तु सभी का अनुभव यह है कि यदि कोई भी दो पदार्थ स्वरूप से भिन्न हों तो उनके परिणाम अथवा कार्य भी भिन्न भिन्न होने चाहिये । अतएव हम लोग पदार्थों के भिन्न अथवा एक- रूप होने का निर्णय उन पदार्थों के परिणामों से ही किसी भी शास्त्र में किया करते हैं। एक उदाहरण लीजिये, दो वृक्षों के फल, फूल, पत्ते, छिलके और जड़ को देख कर हम निश्चय करते हैं कि वे दोनों अलग-अलग हैं या एक ही हैं। यदि इसी रीति का अवलम्ब करके यहाँ विचार करें तो देख पड़ता है कि श्रात्मा और ब्रहा एक ही स्वरूप के होंगे। क्योंकि ऊपर कहा जा चुका है कि सृष्टि के भिन्न भिन्न पदार्थों के तो संस्कार मन पर होते हैं उनका श्रात्मा की क्रिया से एकीकरण होता है। इस एकीकरण के साथ उस एकीकरण का मेल होना चाहिये कि जिसे भिन्न मिन्न बाह्य पदार्थों के मूल में रहनेवाला वस्तुतस्त्र अर्थात् ब्रह्म इन पदार्थों की अनेकता को मेट कर निष्पन्न करता है। यदि इस प्रकार इन दोनों में मेल न होगा तो समूचा ज्ञान निराधार और असत्य हो जावेगा । एक ही नमूने के और विलकुल एक दूसरे की जोड़ के एकीकरण करनेवाले ये तत्त्र दो स्थानों पर भले ही हो परन्तु वे परस्पर भिन्न भिन्न नहीं रह सकते; भतएव यह माप ही सिद्ध होता है कि इनमें से आत्मा का जो रूप होगा,
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