पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२६१

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२२२ गीतारहस्य अथया कर्मयोगशास्त्र । और 'मैं'-विषयक ज्ञान जुदा है- इस प्रकार ज्ञान-ज्ञान में ही जो भिन्नता हमारी बुद्धि को जंचती है, उसका कारण क्या है ? माना कि, ज्ञान होने की मानसिक क्रिया सर्वस एक ही है, परन्तु यदि कहा जाय कि उसके सिवा और कुछ है ही नहीं, तो गाय, घोड़ा इत्यादि भिन्न-भिन्न भेद था कहाँ से गये ? यदि कोई कहे कि त्वम की सृष्टि के समान मन आप ही अपनी मर्जी से ज्ञान के ये भेद बनाया करता है तो स्वप्न की सृष्टि से पृथक् जागृत अवस्था के ज्ञान में जो एक प्रकार का ठीक ठीक सिलसिला मिलता है, उसका कारण बतलात नहीं बनता (वैसू. शांभा. २.२. २६.३.२.४)। अच्छा, यदि कहें कि ज्ञान को छोड़ दूसरी कोई भी वस्तु नहीं है और 'द्रष्टा' का मन ही सारे भिन्न-भिज पदार्थों को निर्मित करता है, तो प्रत्येक द्रष्टा को 'अइंपूर्वक ' यह सारा ज्ञान होना चाहिये कि मेरा मन यानी मैं ही सम्भा हूँ' अथवा ' मैं ही गाय हूँ। परन्तु ऐसा होता कहाँ है? इसी से शङ्कराचार्य ने सिद्धान्त किया है कि, जब सभी को यह प्रतीति होती है कि मैं अलग हूँ और मुझ से खम्भा और गाय प्रभृति पदार्थ भी अलग-अलग है तब द्रष्टा के मन में समूचा ज्ञान होने के लिये इस अाधारभूत बाह्य सृष्टि में कुछ न कुछ स्वतन्त्र वस्तुएँ अवश्य होनी चाहिये (वेसू. शांभा. २. २. २८)। कान्ट का मत भी इसी प्रकार का है। उसने स्पष्ट कह दिया है कि सृष्टि का ज्ञान होने के लिये यद्यपि मनुष्य की बुद्धि का एकीकरण आवश्यक है,तथापि बुदि इस ज्ञानको सर्वधा अपनी ही गाँउ से, अर्थात् निराधार या विनकुल नया नहीं उत्पन्न कर देती, उसे सृष्टि की बाह्य वस्तुओं की सदैव अपेक्षारहती है।यहाँ कोई प्रश्न करे कि, "क्योजी! शङ्कराचाय एक वार बाब सृष्टि को मिथ्या कहते हैं और फिर दूसरी बार चौदा का खण्डन करने में उसी वाह्य सृष्टि के अस्तित्व को, 'दृष्टा' के अस्तित्व के समान ही, सत्य प्रतिपादन करते हैं! इन बेमेल बातों का मिलान होगा कैसे ? " पर, इस प्रश्न का उत्तर पहले ही बतला चुके हैं। प्राचार्य जब वाह्य सृष्टि को मिय्या या असत्य कहते हैं, तब उसका इतना ही अर्थ समझना चाहिये कि वाह्य सृष्टि का दृश्य नाम-रूप असत्य अर्थात् विनाशवान् है। नाम-रूपात्मक बाह्य दृश्य मिथ्या बना रहे; पर उससे इस सिद्धान्त में रत्तीभर भी आँच नहीं आती कि उस वाह्य सृष्टि के मूल में कुछ न कुछ इन्द्रियातीत सत्य वस्तु है। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विचार में जिस प्रकार यह सिद्धान्त किया है कि देहेन्द्रिय आदि विनाशवान् नाम-रूपों के मूल में कोई नित्य आत्मतत्व है, उसी प्रकार कहना पड़ता है कि नाम-रूपात्मक वाह सृष्टि के मूल में भी कुछ न कुछ नित्य मात्मतत्व है। अतएव वेदान्तशास्त्र ने निश्चय किया है कि देहेन्द्रियों और यात्रा सृष्टि के निशिदिन बदलनेवाले अर्थात् मिथ्या दृश्यों के मूल में, दोनों ही और कोई नित्य अर्थात् सत्य द्रव्य छिपा हुआ है। इसके आगे अब प्रश्न होता है कि दोनों और जो ये नित्य तत्त्व हैं, वे अलग अलग हैया एक रूपी हैं । परन्तु इसका विचार फिर करेंगे। इस मत पर मौके-वैमौके इसकी अर्वाची. नता के सम्बन्धमजो आक्षेप हुआ करता है, थभी उसी का थोड़ा सा विचार करते हैं।