२२० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । वद्गीता में 'माया, "मोह' और 'अज्ञान शब्दों से वही अर्थ विवक्षित है। जगत् के प्रारम्भ में जो कुछ था, वह विना नामरूप का अर्थात् निर्गुण और अव्यक्त था; फिर आगे चल कर नाम-रूप मिल जाने से वही व्यक और सगुण वन जाता है (बृ. १. ४.७छां. ६.१.२,३) । अतएव विकारवान् अथवा नाशवान् नाम-रूप को ही 'माया नाम दे कर कहते हैं कि यह सगुण अथवा दृश्य-सृष्टि एक मूलद्रव्य अर्थात् ईश्वर की माया का खेल या लीला है। अब इस दृष्टि से देख तो सांख्यों की प्रकृति अव्यक भले ही बनी रहे, पर वह सत्व-रज-तमगुणमयी है, अतः नाम-रूप से युक्त माया ही है। इस प्रकृति से विश्व की जो उत्पचि या फैलाव होता है (जिसका वर्णन आठवें प्रकरण में किया है) वह भी तो उस माया का सगुण नाम-रूपात्मक विकार है। क्योंकि कोई भी गुण हो, वह इन्द्रियों को गोचर होनेवाला और इसी से नाम-रूपात्मक ही रहेगा। सारे आधिभौतिक शास्त्र भी इसी प्रकार माया के वर्ग में आजाते हैं। इतिहास, भूगर्भशास्त्र विद्युत्शास्त्र, रसायनशास्त्र, पदार्थविज्ञान आदि कोई भी शास्त्र लीजिये, उसमें सव नाम-रूप का ही तो विवे. चन रहता है अर्थात् यही वर्णन होता है कि किसी भी पदार्थ का एक नाम-रूप चला जा कर उसे दूसरा नाम-रूप कैसे मिलता है। उदाहरणार्थ, नाम-रूप के भेद का ही विचार इस शास्त्र में इस प्रकार रहता है। जैसे पानी जिसका नाम है, उसको भाफ नाम कब और कैसे मिलता है अथवा काले-कलूटे तारकोल से लाल-हरे, नीले-पीले रंगने के रह (रूप) क्योंकर वनते हैं, इत्यादि । अतएव नाम-रूप में ही उलझे हुए इन शास्त्रों के अभ्यास से, उस सत्य वस्तु का बोध नहीं हो सकता कि जो नाम-रूप से परे है। प्रगट है कि जिसे सचे ब्रह्मस्वरूप का पता लगाना हो, उसको अपनी दृष्टि इन सब आधिभौतिक अर्थात् नाम-रूपात्मक शास्त्रों से परे पहु- चानी चाहिये । और यही अर्थ छान्दोग्य उपनिपद में, सातवें अध्याय के आरम्भ की कथा में व्यक्त किया गया गया है। कथा का आरम्भ इस प्रकार है। नारद ऋपि सन- कुमार अर्थात् स्कन्द के यहाँ जा कर कहने लगे कि, 'मुझे आत्मज्ञान वतलामो;' तव सनत्कुमार चोले कि, 'पहले वतलानो, तुमने क्या सीखा है, फिर मैं बतलाता हूँ'।इस पर नारद ने कहा कि, " मैं ने इतिहास-पुराणरूपी पाँचवें वेद सहित ऋग्वेद प्रभृति समग्र वेद, व्याकरण, गणित, तर्कशास्त्र, कालशास्त्र, नीतिशाल, सभी वेदाङ्ग, धर्मशास्त्र, भूतविद्या, ज्ञानविद्या, नवनविद्या और सपवजनविद्या प्रभृति सब कुछ पढ़ा है। परन्तु जव इससे आत्मज्ञान नहीं हुआ, तव अब तुम्हारे यहाँ पाया हूँ।" इसका सनत्कुमार ने यह उत्तर दिया कि, 'तू ने जो कुछ सीखा है, वह तो सारा नाम-रूपात्मक है सच्चा ब्रह्म इस नामब्रह्म से बहुत आगे है। और फिर नारद को क्रमशः इस प्रकार पहचान करा दी, कि इस नाम-रूप से अर्थात् सांख्यों की अव्यक्त प्रकृति से अथवा वाणी, आशा, सङ्कल्प, मन, बुद्धि (ज्ञान) और प्राण से भी परे एवं इनसे बढ़-चढ़ कर जो है वही परमात्मरूपी अमृततत्व है। यहाँ तक जो विवेचन किया गया, उसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि मनुष्य की
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