अध्यात्म। २१४ बनाने में जो खर्च लगा होगा उसकी ओर खरीदार ज़रा भी ध्यान नहीं देता, वह कहता है कि ईंट-चूना लकड़ी-पत्थर और मज़दूरी की लागत में यदि घेचना चाहो तो वेच डालो। इन दृष्टान्तों से वेदान्तियों के इस कथन को पाठक भली भांति समझ जावेंगे कि नाम-रूपात्मक जगत् मिथ्या है और यह सत्य है। एश्य जगत् मिथ्या है इसका अर्थ यह नहीं कि वह आँखों से देख ही नहीं पड़ता; किन्तु इसका ठीक ठीक अर्थ यही है कि वह आँखों से तो देख पड़ता है, पर एक ही द्रव्य के नाम-रूप भेद के कारण जगत् के बहुतेरे जो स्पलकृत अथवा कालकृत दृश्य हैं, वे नाशवान् हैं और इसी से मिय्या है। इन सब नाम-रूपात्मक श्यों के आच्छादन में छिपा हुआ सदैव रहनेवाला जो अविनाशी और यविकारी द्रव्य है, वही नित्य और सत्य है। शराफ को कड़े, कान, गुरूज और अंगूठियाँ खोटी जंचती हैं, उसे सिर्फ उनका सोना खरा अँचता है, परन्तु सृष्टि के सोनार के कारखाने में मूल में ऐसा एक ही द्रव्य है कि जिसके भिन्न-भिल नाम-रुप दे कर सोना-चाँदी, लोहा- पत्थर, लकड़ी, हवा-पानी आदि सारे गहने गढ़वाये जाते हैं । इसलिये शराफ की अपेक्षा वेदान्ती कुछ और आगे बढ़ कर सोना-चाँदी या पत्थर प्रभृति नाम-रूपों को, जेवर के ही समान मिथ्या समझ कर सिन्दान्त करता है कि इन सय पदायों के मूल में जो द्रव्य अर्थात् 'यस्तुताव ' मौजूद है वही सचा अर्यात अविकारी सत्य है। इस वस्तुतत्व में नाम-रूप प्रादि कोई भी गुण नहीं हैं, इस कारण इसे नेत्र आदि इन्द्रियों कभी भी नहीं जान सकतीं । परन्तु आँखों से न देख पड़ने, नाक से न सूघे जाने अथवा हाय से न टटोले जाने पर भी धादि से निश्चयपूर्वक अनुमान किया जाता है कि अन्यक्त रूप से वह होगा अवश्य ही; न केवल इतना ही, बल्कि यह भी निश्चय करना पड़ता है कि इस जगत् में कभी न यदलनेवाला जो कुछ है, वह यही सत्य वस्तुतत्व है । जगत् का मूल सत्य इसी को कहते हैं । परन्तु जो नासमझ विदेशी और कुछ स्वदेशी पंडितम्मन्य भी सत्य और मिथ्या शब्दों के, येदान्त शाखवाले पारिभाषिक अर्थ को न तो सोचते-समझते हैं, और न यह देखने का ही कष्ट उठाते हैं कि सत्य शब्द का जो अर्थ हमें सूझता है, उसकी अपेक्षा इसका अर्थ कुछ और भी हो सकेगा या नहीं; वे यह कह कर अद्वैत वेदान्त का उपहास किया करते हैं कि " हमें जो जगत् आँखों से प्रत्यक्ष देख पड़ता है, इसे भी वेदान्ती लोग मिथ्या कहते हैं, भला यह कोई यात है!" परन्तु यास्क के शब्दों में कह सकते हैं कि यदि अन्धे को खम्भा नहीं सूझता,तो इसका दोपी कुछ खम्भा नहीं है! छान्दोग्य (६. १; और ७.१), वृहदारण्यक (१.६.३), मुण्डक (३. २.८) और प्रश्न (६.५), आदि उपनिपदों में पारंवार यतलाया गया है कि नित्य बदलते रहनेवाले अर्थात् नाशवान् नाम-रूप सत्य नहीं हैं, जिसे सत्य अर्थात् नित्य स्थिर तत्व देखना हो, उसे अपनी दृष्टि को इन नाम-रूपों से बहुत आगे पहुँचाना चाहिये । इसी नाम-रूप को कठ (२.५) और मुण्डक (१. २.६) आदि उपनिपदों में 'अविद्या ' तथा श्वेताश्वर उपनिषद् (४.१०) में 'माया' कहा है । भग-
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२५८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।