२१४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । त्तम " ग्रन्थों से कुछ विचार मैंने अपने ग्रन्थों में लिये हैं। इस छोटे से अन्य में इन सब बातों का विस्तारपूर्वक निरूपण करना सम्भव नहीं, कि उक गम्भीर विचारों और उनके साधक-बाधक प्रमाणों में अथवा वेदान्त के सिद्धान्तों और कान्ट प्रभृति पश्चिमी तत्त्वज्ञों के सिद्धान्तों में समानता कितनी है और अन्तर कितना है। इसी प्रकार इस बात की भी विस्तार से चर्चा नहीं कर सकते, कि उपनिपद् और वेदान्त- सूत्र जैसे प्राचीन अन्यों के वेदान्त में और तदुत्तरकालीन ग्रन्थों के वेदान्त में छोटे मोटे भेद कौन कौन से हैं। अतएव भगवबीता के अध्यात्म-सिद्धान्तों की सत्यता, महत्त्व और उपपत्ति समझा देने के लिये जिन जिन वातों की आवश्यकता है, सिर्फ उन्हीं वातों का यहाँ दिग्दर्शन किया गया है, और इस चर्चा के लिये उपनिपद, वेदान्तसूत्र और उसके शांकरभाष्य का आधार प्रधान रूप से लिया गया है । प्रकृति-पुरुपरूपी सांख्योक्त द्वैत के परे क्या है इसका निर्णय करने के लिये, केवल द्रष्टा और दृश्य सृष्टि के द्वैत-भेद पर ही ठहर जाना उचित नहीं; किन्तु इस बात का भी सूक्ष्म विचार करना चाहिये कि द्रष्टा पुरुष को वाह सृष्टि का जो ज्ञान होता है उसका स्वरूप क्या है, वह ज्ञान किससे होता है और किसका होता है। बाह्य सृष्टि के पदार्थ मनुष्य को नेत्रों से जैसे दिखाई देते हैं, वैसे तो वे पशुओं को भी दिखाई देते हैं। परंतु मनुष्य में यह विशेषता है कि आँख, कान इत्यादि ज्ञानेन्द्रियों से उसके मन पर जो संस्कार हुआ करते हैं, उनमा एकीकरण करने की शक्ति उसमें है और इसी लिये वाह्य सृष्टि के पदार्थ मात्र का ज्ञान उसको हुया करता है। पहले क्षेत्र-क्षेत्रा-विचार में बतला चुके हैं, कि जिस एकीकरण-शक्ति का फल उपर्युक्त विशेषता है, वह शक्ति मन और बुद्धि के भी परे है-अर्थात् वह आत्मा की शक्ति है। यह बात नहीं, कि किसी एक ही पदार्थ का ज्ञान उक रीति से होता हो; किन्तु सृष्टि के मिन्न भिन्न पदार्थों में कार्य-कारण-भाव आदि जो अनेक सम्बन्ध हैं-जिन्हें हम सृष्टि के नियम कहते हैं-उनका ज्ञान भी इसी प्रकार हुआ करता है । इसका कारण यह है, कि यद्यपि हम भिन्न भिन्न पदार्थों को दृष्टि से देखते हैं तथापि उनका कार्य- कारण-सम्बन्ध प्रत्यक्ष टि-गोचर नहीं होता किन्तु हम अपने मानसिक व्यापारों से उसे निश्चित किया करते हैं। उदाहरणार्थ, जब कोई एक पदार्थ हमारे नेत्रों के सामने आता है तव उसका रूप और उसकी गति देख कर हम निश्चय करते हैं कि यह एक 'फौजी सिपाही ' है, और यही संस्कार मन में बना रहता है। इस के बाद ही जब कोई दूसरा पदार्थ उसी रूप और गति में सृष्टि के सामने आता है, तत्र वही मानसिक क्रिया फिर शुरू जाती है और हमारी बुद्धि का निश्चय हो जाता है कि वह भी एक फौजी सिपाही है। इस प्रकार भिन्न भिन्न समय में एक के बाद दूसरे, जो अनेक संस्कार हमारे मन पर होते रहते हैं, उन्हें हम अपनी स्मरण शक्ति से याद कर एकत्र रखते हैं और जब वह पदार्य-समूह हमारी दृष्टि के सामने आ जाता है, तब उन सव भिन्न भिन्न संस्कारों का ज्ञान एकता के रूप में हो कर हम कहने लगते हैं कि हमारे सामने से 'फौज ' जा रही है। इस सेना के
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