अध्यात्मा २१३ चीन समय में इसी दृष्टि को स्वीकार कर के स्पेन्सर, कोन्ट प्रभृति केवल आधिभौतिक पण्डित भी यही कहते हैं, कि " इस संसार में मनुष्य मात्र का नैतिक परम कर्तव्य यही है, कि वह किसी प्रकार के क्षणिक सुख में न फंस कर वर्तमान और भावी मनुष्य जाति के चिरकालिक सुख के लिये उद्योग करे।" अपने जीवन के पश्चात् के चिरकालिक कल्यागा की शर्थात् अमृतत्व की यह कल्पना आई कहीं से ? यदि कहें कि यह स्वभाव-सिद्ध है, तो मानना पड़ेगा कि इस नाशवान् देह के सिवा और कोई अमृत वस्तु अवश्य है । और यदि कहें कि ऐली अमृत वस्तु कोई नहीं है तो हम जिस मनोवृत्ति की साक्षात् प्रतीति होती है, उसका अन्य कोई कारण भी नहीं बतलाते बन पड़ता ! ऐसी कठिनाई आ पड़ने पर कुछ प्राधि- भौतिक पण्डित यह उपदेश करते हैं, कि इन प्रक्षों का कभी समाधानकारक उत्तर नहीं मिल सकता, अतएव इनका विचार न करके एश्य सृष्टि के पदार्थों के गुण- धर्म के परे अपने मन की दौड़ कभी न जाने दो। यह उपदेश है तो सरल; परन्तु मनुष्य के मन में तत्वज्ञान की जो स्वाभाविक लालसा होती है उसका प्रतिरोध कौन और किस प्रकार से कर सकता है ? और इस दुर्धर जिज्ञासा का यदि नाश कर डालें तो फिर ज्ञान की वृद्धि हो कैसे ? जय से मनुष्य इस पृथ्वीतल पर उत्पन हुआ है, तभी से वह इस प्रश्न का विचार करता चला आया है कि, “ सारी एश्य और नाशवान् सृष्टि का मूलभूत अमृत तत्व क्या है, और वह मुझे कैसे प्राप्त होगा ? " आधिभौतिक शाखों की चाहे जैसी उसति हो, तथापि मनुप्य की अमृत- तत्त्व-सम्बन्धी ज्ञान की स्वाभाविक प्रवृत्ति कमी कम होने की नहीं । आधिभौतिक शासों की चाहे जैसी वृद्धि हो, तो भी सारे माधिभौतिक सृष्टि-विज्ञान को यगल में दवा कर प्राध्यात्मिक तत्वज्ञान सदा उसके आगे ही दौड़ता रहेगा ! दो चार हजार वर्ष के पहले यही दशा थी, और अव पश्चिमी देशों में भी वही यात देख पड़ती है। और तो क्या, मनुष्य की युद्धि की यह ज्ञान-लालसा जिस दिन छूटेगी, उस दिन उसके विषय में यही कहना होगा कि “ सवै मुक्तोऽथवा पशुः"! दिकाल से समर्यादित, अमृत, अनादि, स्वतन्त्र, सम, एक, निरन्तर, सर्वव्यापी और निर्गुण तत्व के अस्तित्व के विषय में, अथवा उस निर्गुण तत्त्व से सगुणसृष्टि की उत्पत्ति के विषय में, जैसा व्याख्यान हमारे प्राचीन उपनिपदों में किया गया है, उससे प्राधिक सयुक्तिक व्याख्यान अन्य देशों के तावों ने अब तक नहीं किया है। अर्वाचीन जर्मन तत्ववेत्ता कान्ट ने इस बात का सूक्ष्म विचार किया है, कि मनुष्य को बाय सृष्टि की विविधता या भिनता का ज्ञान एकता से क्यों और कैसे होता है और फिर उस उपपत्ति को ही उसने अर्वाचीन शास्त्र की रीति से अधिक स्पष्ट कर दिया है, और हेगल यद्यपि अपने विचार में कान्ट से कुछ भागे बढ़ा है, तथापि उसके भी सिद्धान्त वेदान्त के आगे नहीं बढ़े हैं। शोपेनहार का भी यही हाल है। लैटिन भाषा में उपनिपदों के अनुवाद का अध्ययन उसने किया था; और उसने यह बात भी लिख रखी है कि " संसार के साहित्य के इन अत्यु-
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