गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । अकर्म के पर्याय शब्द-शास्त्रीय प्रतिपादन के तीन पन्थ, प्राधिमौतिक, माधिः दैविक, आध्यात्मिक-इस पन्धमेद का कारण-कॉट का मत-गीता के अनुसार अध्यात्मदृष्टि की श्रेष्ठता-धर्म शब्द के दो अर्थ, पारलाक्षिक और व्यावहारिक- चातुर्वण्र्य आदि धर्म-जगत् का धारण करता है, इसलिये धर्म- चोदनालक्षण धर्म-धर्म-अधर्म का निर्णय करने के लिये साधारण नियम-'महाजनी येन गतः स पन्याः' और इसके दोप- प्रति सर्वत्र वर्जयेन् ' और उसकी अपूर्णता- अविरोध से धर्मनिर्णय-कर्मयोगशास्त्र का कार्य। पृ. ५१-७३। चौथा प्रकरण-आधिभौतिक सुखवाद । स्वरूप प्रस्ताव-धर्म-अधर्म-निर्णायक ताव-चार्वाक का कवन स्वार्थ- हॉब्स का दूरदर्शी स्वार्थ -स्वार्थ-बुद्धि के समान ही परोपकारयुदिनी नसर्गिक है. याज्ञवल्क्य का आत्मार्थ-स्वार्थ-परार्थ-उभयवाद प्रयवा उदात्त या उघ स्वाय- उस पर धार-परार्थप्रधान पन-अधिकांश लोगों का प्राधिक मुख - इस पर आक्षेर-किस प्रकार और कौन निश्चित करें कि अधिकांश लोगों का अधिक मुन्न क्या ई-कर्म की सपना कत्ती की बुद्धि का महत्व-परोपकार क्यों करना चाहिये -मनुष्यजाति की पूर्ण अवस्था-श्रेय और प्रेय-मुख-दुःख की प्रनित्यता और नीतिधर्म की नित्यता। पृ. ७४-३। पाँचवाँ प्रकरण-सुखदुःखविवेक। सुन के लिये प्रत्येक की प्रवृत्ति-सुख-दुःख के लक्षण और भेद-मुख स्वतन्त्र है या दुःखामावारूप? संन्यासमार्ग का मत - उसका खराटन-गीता का सिद्धान्त-सुख और दुःख, दो स्वतन्त्र भाव है- इस लोक में प्राप्त होनेवाने सुख- दुःख विपर्यय-संसार में सुख अधिक है या दुःख-पश्चिमी सुखाधिश्य-बाद- मनुष्य के प्रात्महत्या न करने से ही संसार का सुखमयत्व सिद्ध नहीं होता-सुख की इच्छा की अपार वृद्धि-सुख की इच्छा सुखोपभोग से तृप्त नहीं होती -प्रह- एव संसार में दुःख की अधिकता -हमारे शास्त्रकारों का तदनुकूल सिद्धान्त- शोपेनहर का मत-असन्तोष का उपयोग -उसके दुष्परिणाम को हटाने का उपाय- सुख-दुःख के अनुभव को प्रात्मवरावा, और फजाया का लक्षा-फमाशा को त्यागने से ही दुःखनिवारण होता है, अतः कर्नत्याग का निव-इन्द्रिय-निप्रह की मर्यादा-कर्मयोग की चतु:सूत्री-शारीरिक अर्थात् प्राधिमौतिक सुख का पशुधर्मस्व-प्रात्मप्रसादज अर्थात् आध्यात्मिक सुख की बेटता और नित्यता-इन दोनों सुखों की प्राप्ति ही कर्मयोग की दृष्टि से परम साध्य ई-विपयोपभोग मुख भनित्य है और परम ध्येय होने के लिये अयोग्य है-आधिभौतिक सुखवाद की अपूर्णता। ...
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