पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२४९

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२१० गीतारहस्य मयषा कर्मयोगशाल। निर्गुण रूप की उपपत्ति पनिपदों में और गीता में न दी गई होती, तो बात ही दूसरी थी; परन्तु यथार्थ में वैसा नहीं । देखिये न, भगवद्गीता में तो. स्पष्ट ही कहा है कि परमेश्वर का सच्चा श्रेष्ठ त्वल्प अय्यक है, और व्यक्त सृष्टि का रूप धारण करना तो उसकी नाग है (गी. ४.६); परन्तु भगवान् ने यह भी कहा है, कि प्रकृति के गुणों से ' मोह में फंस कर मूर्ख लोग (अव्यक्त और निर्गुण) आत्मा को ही कर्ता मानते हैं। (गी. ३. २७-२८), किन्तु ईश्वर तो कुछ नहीं करता, लोग केवल अज्ञान से धोखा खाते हैं (गी. ५. ५) अर्थाद भगवान् ने स्पष्ट शब्दों में यह उपदेश किया है, कि यद्यपि अन्यक यात्मा या परमेश्वर वस्तुतः निर्गुण है (गी. ३.३१) तो भी लोग उस पर 'मोह' या 'अज्ञान' से कर्तृत्व आदि गुणों का अध्यारोप करते हैं और उले अन्यक सगुण बना देते हैं (गी.७.२४) । त विवेचन से परमेश्वर के स्वरूप के विषय में गीता के यही सिद्धान्त मालूम होते है:-(१) गीता में परमेश्वर के व्यक स्वरूप का यद्यपि बहुत सा वर्णन है तथापि परमेश्वर का सूल और श्रेष्ठ स्वरूप निर्गुण तथा अव्यक ही है और मनुष्य मोह या अशान से उसे सगुण मानते हैं (२) सांख्यों की प्रकृति या उसका व्यक्त फैलाव यानी अखिल संसार - उस परमेश्वर की माया है; और (३) सांख्यों का पुरुष यानी जीवात्मा यथार्थ में परमेश्व-रूपी, परमेश्वर के समान ही निपुण और अकर्ता है, परन्तु अशान के कारण लोग उसे कर्ता मानते हैं। वेदान्तशास्त्र के सिद्धान्त भी ऐसे ही हैं, परन्तु उत्तर-वेदान्त-अन्यों में इन सिद्धान्तों को बतलाते समय माया और अविद्या में कुछ भेद किया जाता है। उदाहरणार्थ, पंचदशी में पहले यह बतलाया गया है कि प्रात्मा और परब्रह्म दोनों मूल में एक ही यानी ब्रह्मस्वरूप हैं, और यह चित्त्वरूपी ब्रह्म जव माया में प्रतिविम्वित होता है तव सत्त्व-रज-तम गुणमयी (सांख्यों की मूल) प्रकृति का निर्माण होता है। परन्तु आगे चल कर इस माया के ही दो भेद- 'माया' और 'अविद्या' किये गये हैं और यह बतलाया गया है, शिजव माया के तीन गुणों में से 'शुद्ध ' सत्त्वगुण का उत्कर्ष होता है तव उसे केवल माया कहते हैं, और इस माया में प्रतिविम्वित होनेवाले ब्रह्म को सगुण यानी व्यक इंश्वर (हिरण्यगर्म) कहते हैं, और यदि यही सत्त्व गुण 'अशुद्ध' हो तो उसे 'अविद्या ' कहते हैं, त्या रस अविद्या में प्रतिविम्वित ब्रह्म को जीव' कहते हैं (पंच. १.१५-१७)। इस दृष्टि से, यानी उत्तरकालीन वेदान्त की दृष्टि से, देखें तो एक ही माया के स्वल्पतः दो भेद करने पड़ते है- अर्थात परब्रह्म से व्यक्त ईश्वर के निर्माण होने का कारण माया और 'जीव' के निर्माण होने का कारण अविद्या मानना पड़ता है। परन्तु गीता में इस प्रकार का मेद नहीं किया गया है। गीता कहती है, कि जिस माया से स्वयं भगवान् व्यक रूप यानी सगुण रूप धारण करते हैं (७.२५), अथवा जिस मात्रा के द्वारा अष्टधा प्रकृति अर्थात् सृष्टि की सारी विभूतियाँ उनसे उत्पन होती हैं (४.६), उसी माया के अज्ञान से जीव मोहित होता है (७.४-१५)। अविद्या ' शब्द गीता में कहीं भी नहीं आया है। और