अध्यात्म। २०७ अनुसार उपास्य अव्यक्त परमात्मा के गुण भी उपनिषदों में भिन्न भिन्न कहे गये है। उपनिषदों के इस प्रकरण को विद्या ' कहते हैं। विद्या ईश्वर-प्राप्ति का (उपा. सनारूप) मार्ग है और यह मार्ग जिस प्रकरण में बतलाया गया है उसे भी विद्या' ही नाम अन्त में दिया जाता है। शांडिल्यविद्या (छां.३. १४), पुरुषविया (घां. ३. १६, १७), पर्यकविद्या (कोपी. १), माणोपासना (फोपी. २) इत्यादि अनेक प्रकार फी उपासनाघों का वर्णन उपनिषदों में किया गया है और इन सब का विवेचन वेदान्तसूत्रों के तृतीयाध्याय के तीसरे पाद में किया गया है। इस प्रकरण में अव्यक्त परमात्मा का सगुण वर्णन इस प्रकार है कि यह मनोमय, प्राणशरीर, भारूप, सत्य- संकल्प, आकाशात्मा, सर्वकर्मा, सर्वकाम, सर्वगंध और सर्वरस है (चां. ३. १४.२)। तैत्तिरीय उपनिपद में तो पता, प्राण, मन, ज्ञान या अानंद-इन रूपों में भी परमात्मा की बढ़ती हुई उपासना चतलाई गई है (ते. २. १-५, ३.२-६)। वृहदार. एयक (२.१) में गाय वालाकी ने अजातशत्रु को पहले पहल प्रादित्य, चन्द्र, विद्युत्, आकाश, वायु, अग्नि, जल या दिशाओं में रहनेवाले पुरुषों की प्रारूप से उपासना यतलाई है। परन्तु भागे अजातशत्रु ने उससे यह कहा कि सच्चा बस इनके भी परे है, और अन्त में प्राणोपासना ही को मुख्य ठहराया है । इतने ही से यह परम्परा कुछ पूरी नहीं हो जाती। उपर्युक्त सय प्रहरूपों को प्रतीक, अर्थात् इन सब को उपासना के लिये कल्पित गौण वास्वरूप, अथवा प्रानिदर्शक चिन्ह, कहते हैं और जब यही गौणरूप किसी भूर्ति के रूप में नेत्रों के सामने रखा जाता है तब उसी को प्रतिमा' कहते हैं । परन्तु स्मरण रहे कि सब उपनिषदों का सिद्धान्त यही है, कि सच्चा बलस्वरूप इससे भिता है (केन. १.२८) । इस ग्रह के लवण का वर्णन करते समय कहीं तो 'सत्यं ज्ञानमनन्तं मय' (तैत्ति. २.१) या विज्ञानमानन्दंबा ' (पृ. ३. ६. २८) कहा है अर्थात् बम सत्य (सत्), ज्ञान (चित) और प्रानन्दरूप है, अर्थात् सचिदानन्दस्वरूप है इस प्रकार सब गुणों का तीन ही गुणों में समावेश करके वर्णन किया गया है। और अन्य स्थानों में भगवनीता के समान ही, परस्पर विरुद्ध गुणों को एकत्र कर के घर का वर्णन इस प्रकार किया गया है, कि प्रा सत् भी नहीं और असत् भी नहीं' (बर. १०. १२६. १) अयया 'अणोरगीयान्महतो महीयान् । अर्थात् प्रणु से भी छोटा और बड़े से भी बड़ा है (कठ. २. २०), 'तदेजति तनेजति तत् दूरे तद्वतिक अर्थात् वह हिलता है और हिलता भी नहीं, वह दूर है और समीप भी है (ईश. ५; मुं. ३. १.७), अथवा सर्वेन्द्रियगुणाभास हो घार भी सर्वेन्द्रियविवर्जित है (ता. ३. १७)। मृत्यु ने 'नचिकेता को यह उपदेश किया है, मि अन्त में उपर्युत सब लक्षणों को छोड़ दो और जो धर्म और अधर्म , कृत और अकृत के, प्रथया भूत और भव्य के भी परे है उसे ही यह जानो (कठ. २. १४)। इसी प्रकार महाभारत के नारायणीय धर्म में प्रमा रुद्र से (मभा.शा. ३५१. ११), और मोक्षधर्म में नारद शुक से कहते हैं (३३१. ४४)। रहदारण्यकोपनिषद ( २.३.२) में भी पूण्वी, जल और अग्नि-इन तीनों
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