अध्यात्म। २०३ अनार या दाडिम के फल में यधपि अनेक दाने होते हैं तो भी इससे जैसे फल की एकता नष्ट नहीं होती, वैसे ही जीव और जगत् यद्यपि परमेश्वर में भरे हुए हैं तथापि ये मूल में उससे भिन्न हैं-और उपनिपदों में जब ऐसा वर्णन आता है कि तीनों 'एक' हैं, तब उसका अर्थ 'दाडिम के फल के समान एक ' जानना चाहिये। जब जीव के स्वरूप के विषय में यह मतान्तर उपस्थित हो गया, तब भिन्न भिन्न साम्प्रदायिक टीकाकार अपने अपने मत के अनुसार उपनिषदों और गीता के भी शब्दों की खोंचातानी करने लगे। परिणाम इसका यह हुआ कि गीता का यथार्थ स्वरूप-उसमें प्रतिपादित सध्या कर्मयोग विपय-तो एक भोर रह गया और अनेक साम्प्रदायिक टीकाकारों के मत में गीता का मुख्य प्रतिपाय विषय यही हो गया, कि गीता-प्रतिपादित वेदान्त द्वैत मत का है या अद्वैत मत का! अस्तु इसके बारे में अधिक विचार करने के पहले यह देखना चाहिये कि जगत् (प्रकृति), जीव (श्रात्मा अथवा पुरुप), और परमस (परमात्मा अथवा पुरुषोत्तम) के परस्पर सम्बन्ध के विषय में स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ही गीता में क्या कहते हैं। अब आगे चल कर पाठकों को यह भी विदित हो जायगा कि इस विषय में गीता और उपनिपदों का एक ही मत है और गीता में कहे गये सब विचार उपनिपदों में पहले ही पा चुके हैं । प्रकृति और पुरुप के भी परे जो पुरुषोत्तम, परपुरुष, परमात्मा या परमस है उसका वर्णन करते समय भगवद्गीता में पहले उसके दो स्वरूप बतलाये गये है, यथा व्यक्त और अध्यक्त (आँखों से दिखनेवाला और आँखों से न दिखनेवाला)। अव, इसमें सन्देह नहीं कि व्यक्त स्वरूप अर्थात इन्द्रिय-गोचर रूप सगुगा ही होना चाहिये। और अव्यक्त रूप ययपि इन्द्रियों को अगोचर है तो भी इतने ही से यह नहीं कहा जा सकता कि वह निर्गुण ही हो । क्योंकि, यद्यपि वह हमारी आँखों से न देख पड़े तो भी उसमें सव प्रकार के गुण सूक्ष्म रूप से रह सकते हैं। इसलिये अन्यक्त के भी तीन भेद किये गये हैं जैसे सगुगा, सगुण-निर्गुण और निर्गुण । यहाँ 'गुण' शब्द में उन सब गुणों का समावेश किया गया है, कि जिनका ज्ञान मनुष्य को केवल उसकी बालेन्द्रियों से ही नहीं होता, किन्तु मन से भी होता है । परमे- श्वर के मूर्तिमान अवतार भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं साक्षात्, अर्जुन के सामने खड़े हो कर उपदेश कर रहे थे, इसलिये गीता में जगह-जगह पर उन्हों ने अपने विषय में प्रथम पुरुप का निर्देश इस प्रकार किया है-जैसे; 'प्रकृति मेरा स्वरूप है' (६.८). 'जीव मेरा अंश है। (१५.७), 'सब भूतों का अन्तर्यामी प्रात्मा मैं हूँ (१०.२०), 'संसार में जितनी श्रीमान् या विगतिमान मूर्तियाँ हैं वे सब मेरे अंश से उत्पदा हुई हैं। (१०.४३), 'मुझमें मन लगा कर मेरा भक्त हो' (६.३४), ' तो तू मुझ में मिल जायगा तू मेरा प्रिय भक्त है इसलिये मैं यह प्रतिज्ञापूर्वक बतलाता हूँ' (१८.६५)। और जब अपने विश्वरूप-दर्शन से अर्जुन को यह प्रत्यक्ष अनुभव करा दिया कि सारी चराचर सृष्टि मेरे व्यक्तरूप में ही साक्षात् भरी हुई है। तब भगवान ने उसको यही उपदेश किया है, कि अन्यक रूप से व्यक्तरूप की उपा-
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