२०२ गीतारहत्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । प्रकृति से परे के परब्रह्म-स्वल्पं को दिखलाने के लिये भी किया गया है (गी. ८.२०, ११.३७, ३५.७६, ३७)। जब इस प्रैशर वेदान्त की दृष्टि का स्वीकार किया गया तव इसमें सन्देह नहीं कि प्रचाति को 'अक्षर' कहना उचित नहीं है- चाहे वह प्रकृति अव्यक्त भले ही हो । शुष्टि के उत्पत्ति-क्रम के विषय में सांस्यों के सिद्धान्त गीता को भी मान्य हैं, इसलिये उनकी निश्चित परिभाषा में कुछ अदल बदल न कर, उन्हीं के शब्दों में क्षर-अक्षरं या व्यक-अध्यक्त सृष्टि का वर्णन गीता में किया गया है, परन्तु स्मरण रहे कि इस वर्णन से प्रकृति और पुल्प के परे जो तीसरा उत्तम पुरुष है उसके लवंशतित्व में, कुछ भी बाधा नहीं होने पाती । इसका परिणाम यह हुआ है कि उहाँ भगवद्गीता में परब्रह्म के स्वल्प का वर्णन किया गया है वहाँ, सांख्य और वेदान्त के मतान्तर का सन्देह मिटाने के लिये, (सांख्य) अध्यक्त के भी परे का अव्यक्त और (सांख्य) अक्षर से भी परे का अक्षर, इस प्रकार के शब्दों का उपयोग करना पड़ा है । उदा. हरणार्थ, इस प्रकरण के प्रारम्भ में जो श्लोक दिया गया है, उसे देखो।सारांश, गीता पड़ते समय इस यात का सदा ध्यान रखना चाहिये, कि अन्यक' और 'अक्षर', ये दोनों शब्द कमी सांख्यों की प्रकृति के लिये और कभी वेदान्तियों के परब्रह्म के लिये- अर्थात् दो भिन्न प्रकार से-गीता में प्रयुक्त हुए हैं । जगत् का मूल, वेदान्त की वृष्टि से, सांख्यों की अन्यक प्रकृति के भी परे का दूसरा अन्यक्त तत्व है। जगत् के आदि-तत्व के विषय में सांख्य और वेदान्त में यह उपर्युक भेद है। आगे इस विषय का विवरण किया जायगा कि इसी भेद से अध्यात्मशास्त्र-प्रतिपा- दित सोक्ष-स्वरूप और सांख्यों के मोक्ष-स्वरूप में भी भेद कैसे हो गया। साल्यों के द्वैत-प्रकृति और पुरप-को नमानकर जब यह मान लिया गया, कि इस जगत कीजढ़ में परमेश्वररूपी अथवा पुरुषोत्तमरूपी एक तीसरा ही नित्य तत्त्व है और प्रकृति त्या पुरुष दोनों ब्लकी विभूतियाँ हैं। तव सहज ही यह प्रश्न होता है, कि उस तीसरे मूलभूत तत्त्व का स्वरूप क्या है और प्रकृति तथा पुरुष से इसका कौन सा सम्बन्ध है? प्रचति, पुरुष और परमेश्वर, इसी त्रयी को अध्यात्मशास्त्र में क्रम से जगत, जीव और परमार कहते हैं। और इन तीनों वस्तुन्नों के स्वरूप तथा इनके पारस्परिक सम्बन्ध का निर्णय करना ही वेदान्तशास्त्र का प्रधान कार्य है एवं उपनिषदों में भी यही चर्चा की गई है। पल्तु सब वेदान्तियों का मत उस त्रयी के विषय से एक नहीं है। कोई कहते हैं, कि ये तीनों पदार्य आदि में एक ही हैं और कोई यह मानते हैं, किजीव और जगत् परमेश्वर से आदि ही में थोड़े या अत्यन्त भिन्न हैं। इसी से वैद्रान्तियों रो अद्वैती, विशिष्टाद्वैती और द्वैतीद उत्पन्न हो गये हैं। यह सिदान्त सब लोगों को एक सा बाह्य है कि जीव और जगत् के सारे व्यवहार परमेश्वर की इच्छा से होते हैं । परन्तु कुछ लोग तो मानते हैं, कि जीव, जगत् और पत्नहा, इन तीनों का मूलस्वरूप आकाश के समान एक ही और अखण्डित है तथा दूसरे वेदान्ती कहते हैं कि जड़ और चैतन्य का एक होना सम्भव नहीं, अतएव
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