गीतारहस्य के प्रत्येक प्रकरण के विषयों की अनुक्रमणिका। पहला प्रकरण-विषयप्रवेश। श्रीमद्भगवद्गीता की योग्यता-गीता के अध्याय-परिसमाप्ति-सूचक साप- गीता शब्द का अर्थ - अन्यान्य गीताओं का वर्णन, और उनकी एवं योगवासिष्ठ आदि की गौणता-ग्रन्थपरीक्षा के भेद - भगवद्गीता के आधुनिक बहिरङ्गपरीक्षक - महाभारत-प्रणेता का बतलाया हुआ गीता तात्पर्य -प्रस्थानत्रयी और उस पर साम्प्रदायिक भाष्य - इनके अनुसार गीता का तात्पर्य - श्रीशङ्कराचार्य -मधुसूदन तत्वमसि - पैशाचभाग्य - रामानुजाचार्य - मध्वाचार्य -वल्लभाचार्य - नियार्क - श्रीधरस्वामी-ज्ञानेश्वर-सव,की साम्प्रदायिक दृष्टि -साम्प्रदायिक दृष्टि को छोड़ कर ग्रन्थ का तात्पर्य निकालने की रीति-साम्प्रदायिक दृष्टि से उसकी उपेक्षा-गीता का उपक्रम और उपसंहार -परस्परविरुद्ध नीति-धर्मों का झगड़ा और उनमें होने- वाला कर्तव्यधर्म-मोह-इसके निवारणार्थ गीता का उपदेश । •पृ.१-२७॥ दूसरा प्रकरण-कर्मजिज्ञासा । कर्तव्य-मूढ़ता के दो अंग्रेजी उदाहरण - इस दृष्टि से महाभारत का महत्व- अहिंसाधर्म और उसके अपवाद -क्षमा और उसके अपवाद -हमारे शास्त्रों का सत्यानृतविवेक-अंग्रेज़ी नीतिशास्त्र के विवेक के साथ उसकी तुलना - हमारे शास्त्रकारों की दृष्टि की श्रेष्ठता और महत्ता-प्रतिज्ञा-पालन और उसकी मर्यादा- मस्तेय और उसका अपवाद-'मरने से जिन्दा रहना श्रेयस्कर है। इसके अपवाद -आत्मरक्षा-माता, पिता, गुरु प्रभृति पूज्य पुरुषों के सम्बन्ध में कर्तव्य और उनके अपवाद -काम, क्रोध, और जोम के निग्रह का तारतम्य -धैर्य आदि गुणों के अवसर और देश-काल-आदि नयांदा-प्राचार का तारतम्य -धर्म-अधर्म की सूक्ष्मता और गीता की अपूर्वता। ...पृ.२८-५०॥ तीसरा प्रकरण-कर्मयोगशास्त्र। कर्मजिज्ञासा का महत्व, गीता का प्रथम अध्याय और कर्मयोगशास्त्र की भावश्यकता-कर्म शब्द के अर्थ का निर्णय -मीमांसकों का कर्म-विभाग-योग शब्द के अर्थ का निर्णय-गीता में योग-कर्मयोग, और वही प्रतिपाद्य है-कर्म-
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