पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२३९

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२०० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । शुद्ध और शान्त बुद्धि में जो स्फूर्ति हुई-उसी का वर्णन. उन्होंने उपनिषद-अन्यों में किया है। इसलिये किसी भी अध्यात्म तत्व का गिय करने में, इन श्रुतिप्रन्यों में कहे गये अनुभविक ज्ञान का सहारा लेने के अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय नहीं है (कठ. ४.१)। मनुष्य केवल अपनी युद्धि की तीव्रता से उक्त आत्म-प्रतीति की पोषक भिन्न भिन युक्तियाँ घतला सकेगा; परन्तु इससे उस मूल प्रतीति की प्रामा- णिकता में रत्ती भर भी न्यूनाधिकता नहीं हो सकती। भगवद्गीता की गणना स्मृति प्रन्यों में की जाती है सही, परन्तु पहले प्रकरण के सारंभ ही में हम कह चुके हैं, कि इस विषय में गीता की योग्यता उपनिपदों की बराबरी की मानी जाती है। अतएव इस प्रकरण अब आगे चल कर पहले सिर्फ यह या जायगा, कि प्रकृति के परे जो अचिंत्य पदार्थ है उसके विषय में गीता और उपनिपदों में कौन कौन से सिद्धान्त किये गये हैं और उनके कारणों का अर्थात् शाख-नीति से उनकी उपपत्ति का विचार पीछे किया जायगा। सांख्य वादियों का द्वैत-प्रकृति और पुरुप--भगवद्गीता को मान्य नहीं है। भगवद्गीता के अध्यात्म-ज्ञान का और वेदान्तशास्त्र का भी पहला सिद्धान्त यह है, कि प्रकृति और पुरुप से भी परे एक सर्वव्यापक, अध्यफ और अमृत तब है जो चर-अचर सृष्टि का मूल है। सांख्यों की प्रकृति यधपि अव्यक्त है तथापि वह त्रिगु- णात्मक अर्थात् सगुण है । परन्तु प्रकृति और पुरुष का विचार करते समय भग- वद्गीता के आठवें अध्याय के बीसवें श्लोक में (इस प्रकरण के प्रारम्भ में ही यह श्लोक दिया गया है) कहा है, कि जो सगुण है वह नाशवान् है इसलिये इस अव्यक्त और सगुण प्रकृति का भी नाश हो जाने पर अन्त में जो कुछ अव्यक्त शेप रह जाता है, वही सारी सृष्टि का सच्चा और नित्य तत्व है । और आगे पन्द्रहवें अध्याय में (३५. १७) मैं क्षर और अक्षर-ज्यक और अन्यक्त इस भाँति सांख्य- शास्त्र के अनुसार दो तत्व बतला कर यह वर्णन किया है:- उत्तमः पुरुषत्वन्यः परमात्मेत्युदाहतः । यो लोकनयमाविश्य विमर्त्यव्यय ईश्वरः ॥ अर्थात्, जो इन दोनों से भी भिन्न है वही उत्तम पुरुप है, उसी को परमात्मा कहते हैं, वहीं अन्यय और सर्वशक्तिमान् है, और वही तीनों लोकों में व्याप्त हो कर उनकी रक्षा करता है। यह पुरुष क्षर और अक्षर अर्थात व्यक्त और अव्यक्त, इन दोनों से भी परे है, इसलिये इसे 'पुरुषोत्तम' कहा है (गी. १५.८)। महाभारत में भी भृगु ऋपि ने भरद्वाज से परमात्मा' शब्द की व्याख्या वतलाते हुए कहा है:- आत्मा क्षेत्रश इत्युक्तः संयुक्तः प्राकृतैर्गुणैः । तैरेव तु विनिर्मुक्तः परमात्मेत्युदाहृतः ।। अर्थात् " जब आत्मा प्रकृति में या शरीर में बन्द रहता है तब उसे क्षेत्र या जीवात्मा कहते हैं और वही, प्राकृत गुणों से यानी प्रकृति या शरीर के गुणों से, .