अध्यात्म। १३३ मनुष्य को उसके विषय में जैसा ज्ञान होवे वैसा होने दो; फिर अध्यात्मशास्त्र की आवश्यकता ही क्या है? हाँ; यदि प्रत्येक मनुष्य का मन या अन्तःकरण लसान रूप से शुद्ध हो, तो फिर यह प्रश्न ठीक होगा । परन्तु जब कि अपना यह प्रत्यक्ष अनुभव है, कि सब लोगों के मन या अन्तःकरण की शुद्धि और शक्ति एक सी नहीं होती; तब जिन लोगों के मन अत्यंत शुम्ब, पचिन्न और विशाल हो गये हैं, उन्हीं की प्रतीति इस विषय में हमारे लिये प्रमाणभूत होनी चाहिये । यों ही 'सुझ ऐसा मालूम होता है और 'तुझे ऐसा सालूम होता है ' कह कर निरर्थक वाद करने से कोई लाभ न होगा। वेदान्तशाख तुनको युक्तियों का उपयोग करने से विलकुल नहीं रोकता । वह सिर्फ यही कहता है कि इस विषय में निरी युनियाँ वहीं तक मानी जावेगी; जहाँ तक कि इन युक्तियों से अत्यंत विशाल, पवित्र और निर्मल मन्तःकरणवाले महात्माओं के इस विषय-सम्बन्धी तादात अनुभव का विरोध न होता हो; क्योंकि अध्यात्मशास्त्र का विषय स्वसंवेध है अर्थात फेवल आधि- भौतिक सुतियों से उसका निर्णय नहीं हो सकता । जिस प्रकार आधिभौतिकशास्त्री में चे अनुभव त्याज्य माने जाते हैं कि जो प्रत्यक्ष के विरुद्ध हो उसी प्रकार वेदान्त-शास में चुक्तियों की अपेक्षा उपर्यु. स्वानुभव की अर्थात् प्रात्म-प्रतीति की योग्यता ही अधिक मानी जाती है। जो युक्ति इस अनुभव के अनुकूल हो उसे वेदान्ती अवश्य मानते हैं। श्रीमान् शंकराचार्य ने अपने पेदान्त-सूनों के भाग्य में यही सिद्धान्त दिया है । अध्यात्म-शास्य का अभ्यास करनेवालों को इस पर हमेशा ध्यान रखना चाहिये- अचिन्त्याः खलु ये भावा न सांस्तकण साधयेत् । प्रकृतिभ्यः परं यत्तु तदचिन्त्यस्य लक्षणम् ॥ "जो पदार्थ इन्द्रियातीत हैं और इसी लिये जिनका चिन्तन नहीं किया जा सकता, उनका निर्णय केवल तर्क या अनुमान से भी नहीं कर लेना चाहिये, सारी सृष्टि की मूल प्रकृति से भी परे जो पदार्थ है वह इस प्रकार अचिंत्य है "यह एक पुराना श्लोक है जो महाभारत में ( भीम. ५. १२.) में पाया जाता है और जो श्री- शंकराचार्य के वेदान्तभाप्य में भी साधयेत् । के स्थान पर ' योजयेत् ' के पाठ- भेद से पाया जाता है (वेसू. शां. भा. २. १. २७) ।मुंडक और कठोपनिपद में भी लिखा है, कि प्रात्मज्ञान केवल तक ही से नहीं प्राप्त हो सकता (मुं. ३.२,३, कठ. २.८, और २२)। अध्यात्मशारा में उपनिपद-प्रन्यों का विशेष महत्व भी इसी लिये है। मन को एकाग्र करने के उपायों के विषय में प्राचीन काल में हमारे हिन्दुस्थान में बहुत चर्चा हो चुकी है और अन्त में इस विपय पर (पाताल) योगशास्त्र नामक एक स्वतंत्र शास्त्र ही निर्मित हो गया है। जो बड़े बड़े ऋपि इस योगशाला में अत्यंत प्रवीण थे, तथा जिनके मन स्वभाव ही से अत्यंत प्रविन और विशाल थे; उन महात्माओं ने मन को अन्तर्मुख करके आत्मा के स्वरूप के विषय में जो अनुभव प्राप्त किया- अथवा, आत्मा स्वरूप के विषय में उनकी
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