पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२३३

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$ १६४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। गीता (EE और ६.७) ने कहा है कि, जब ब्रह्मदेव के इस दिन अर्थात् कल्प का प्रारम होता है तबः- अव्यक्ताद्ध्यक्तयः सीः प्रभवत्यहागमे । राज्यागमे प्रलीयंते तशव्यक्तसंचके || अन्यक से सृष्टि के सब पदार्थ उत्पन्न होने लगते हैं और जब ब्रह्मदेव की रात्रि प्रारम्भ होती है तब सब व्यफ पदार्थ पुनश्च अव्यक्त में लीन हो जाते हैं।" स्मृतिग्रन्य और नहानारत में भी यही बतलाया है । इसके अतिरिक पुराणों में अन्य प्रज्यों का भी वर्णन है। परन्तु इन प्रलयों में सूर्य-चन्द्र आदि सारी सृष्टि का नाश नहीं हो जाता इसलिये प्रसाराड की उत्पत्ति और संहार का विवेचन करते समय इगना विचार नहीं दिया जाता । कल्प, मलदेव का एक दिन अथवा रानि है, और ऐसे ३६० दिन तया ३६० रानियाँ मिल कर यमदेव का एक वर्ष होता है। इसी से पुराणाद्रिका (विणुपुराण १.३ देखो) में यह वर्णन पाया जाता है कि ब्रह्मदेव की आयु उनके सौ वर्ष की है, उसमें से आधी बीत गई, शेप आयु के अर्याद इयायनवे वर्ष के पहले दिन का प्रयवा वेतवाराह नामक कल्प का अव प्रारम्भ हुआ है। और, इस कन्य के चौदह मन्वंतरों में से छः मन्वंतर बीत चुके तया सातव (अयांत वैवस्वत) मन्वंदर के ७१ महायुगों में से २७ महायुग पूरे हो गये एवं अब २० वे महायुग के कलियुग का प्रथम चरण अयांद चतुर्य भाग नारी है। संवत् १६५६ (शक १८२५) में इस कलियुग के ठीक ५००० वर्ष बीत चुकं । इस प्रकार गणित करने से मानूम होगा कि इस कलियुग का प्रलय होने के लिये संवत् ५६ में मनुन्य के ३ लाख ६ हजार वर्ष शेप थे; फिर वर्तमान मन्वंतर के अन्त में अयवा वर्तमान क्स के अन्त में होनेवाले महाप्रलय की बात ही क्या ! मानवी चार अक्ष बचीस करोड़ वर्ष का जो ब्रह्मदेद का दिन इस समय जारी है, उसका पूरा ध्याह्न भी नहीं हुआ अर्थात् सात मन्वंतर भी अब तक नहीं पीते हैं! सृष्टि की रचना और संहार का जो अब तक विवेचन किया गया वह वदान्त के-और परब्रहा को छोड़ देने से सांख्यशास्त्र के तत्वज्ञान के आधार पर कियागया है इसलिये सृष्टि के उत्पत्ति-कम की इसी परम्परा को हमारे शास्त्रकार सदैव प्रमाण मानते हैं, और यही मन नगवनीता में भी दिया हुआ है। इस प्रकरण के प्रारम्भ ही ने क्तला दिया गया है कि सृष्ट्युत्पत्ति कम के बारे में सुन भिन्न भिन्न विचार पाये जाते हैं जो श्रुति-स्थति युराणों में कहीं कहीं कहा है कि प्रथम ब्रह्मदेव या हिरण्यगर्भ उत्पन्न हुना, अयदा पहले पानी टत्पता हुआ और उसने परमेवर के योग से एक सुवर्णमय अण्डा निर्मित हुना । परन्तु इन सब विचारों को गोय तया स्पलक्षणान सनम हर जब उनकी उपपत्ति बतलाने का समय आता है न्य यही कहा जाता है कि, हिरण्यगर्भ ऋयवा ब्रह्मदेव ही प्रकृति है । नगवडीता (३४.३) में त्रिगुणात्मक प्रकृति ही नौ ब्रह्म कहा है "सम योनिमंहन