विश्व की रचना और संहार । १६३ (शां. २३१) में वर्णित काल-गणना सांख्यों को भी मान्य है। हमारा उत्तरायण देव. ताओं का दिन है और हमारा दक्षिणायन उनकी रात है। क्योंकि, स्मृतिग्रन्थों में और ज्योतिपशास की संहिता (सूर्यसिद्धान्त १.१३, १२. ३५, ६७) में भी यही वर्णन है, कि देवता मेरुपर्वत पर अर्थात् उत्तर भूव में रहते हैं । अर्थात्, दो अयनों का हमारा एक वर्ष देवताओं के एक दिन-रात के बराबर और हमारे ३६० वर्प देवताओं के ३६० दिन-रात अथवा एक वर्ष के बराबर हैं। कृत, त्रेता, द्वापर और कलि हमारे चार युग हैं । युगों की काल-गणना इस प्रकार है:-कृत- युग में चार हजार वर्ष, त्रेतायुग में तीन हज़ार, द्वापर में दो हजार और काल में एक हजार वर्ष । परन्तु एक युग समाप्त होते ही दूसरा युग एकदम प्रारम्भ नहीं हो जाता, बीच में दो युगों के संधि-काल में कुछ वर्ष बीत जाते हैं। इस प्रकार कृत- युग के आदि और अन्त में से प्रत्येक ओर चार सौ वर्प का, त्रेतायुग के आगे और पीछे प्रत्येक पोर तीन सौ वर्ष का, द्वापर के पहले और बाद प्रत्येक ओर दो सौ वर्ष का, और कलियुग के पूर्व तथा अनन्तर प्रत्येक और सौ वर्ष का संधि-काल होता है। सब मिला कर चारों युगों का प्रादि-अन्त सहित संधि-काल दो हज़ार वर्ष का होता है। ये दो हजार वर्ष और पहले बतलाये हुए सांख्य-मतानुसार चारों युगों के दस हज़ार वर्ष मिला कर कुल यारह हजार वर्ष होते हैं। ये बारह हज़ार चर्प मनुष्यों के हैं या देवताओं के ? यदि मनुष्यों के माने जाय, तो कलियुग का आरम्भ हुए पाँच हजार वर्ष बीत चुकने के कारण, यह कहना पड़ेगा कि, इज़ार मानवी वर्षों का कलियुग पूरा हो चुका, उसके बाद फिर से आनेवाला कृतयुग भी समास हो गया और हमने अब गायुग में प्रवेश किया है! यह विरोध मिटाने के लिये पुराणों में निश्चित किया है, कि ये यारह हज़ार वर्ष देवताओं के हैं । देव- ताओं के बारह इज़ार वर्ष, मनुष्यों के ३६०४१२०००=४३,२०,००० (तेतालास लाख बीस हजार) वर्ष होते हैं। वर्तमान पंचाङ्गों का युग-परिमाण इसी पद्धति से निश्चित किया जाता है। (देवताओं के) चारह हजार वर्ष मिल कर मनुष्यों का एक महायुग या देवताओं का एक युग होता है । देवताओं के इकहत्तर युगों को एक मन्वंतर कहते हैं और ऐसे मन्वंतर चौदह है । परन्तु, पहले मन्वंतर के आरम्भ तथा अन्त में, और आगे चल कर प्रत्येक मन्वंतर के अखीर में दोनों ओर कृतयुग की बराबरी के एक एक ऐसे १५ संधिकाल होते हैं । ये पंद्रह संधि-काल और चौदह मन्वंतर मिल कर देवताओं के एक हजार युग अथवा ब्रह्मदेव का एक दिन होता है (सूर्यसिद्धान्त १.. १५-२०); और मनुस्मृति तथा महाभारत में लिखा है कि ऐसे ही हज़ार युग मिल कर ब्रह्मदेव की एक रात होती है (सनु. १.६९-७३ और ७६; मभा. शां. २३१. १८-३१; और यास्क का निरुक्त १४.६ देखो)। इस गणना के अनुसार ब्रमदेव का एक दिन मनुष्यों के चार अरव यत्तीस करोड़ वर्ष के बराबर होता है और इसी का नाम है कल्प *। भगव-
- ज्योतिःशास के गाधार पर युगादि-गणना का विचार स्वर्गीय शंकर बाळकृष्ण दीक्षित ने अपने
'भारतीय ज्योतिःशास' नामक (मराठी) ग्रंथ में किया है, पृ.१०३ - १०५; १९३ इ. देखो। गी.र.२५