पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२२९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । कहा है कि, आत्मा को अपने कर्म के अनुसार मिन्न भिन्न लोक प्राप्त होते हैं एवं वहाँ उसे कुछ काल पर्यंत निवास करना पड़ता है (बृ.६. २. १५. और १५)। इसी प्रकार, छान्दोग्योपनिषद् में भी आप (पानी) मूलतत्व के साथ जीव की जिस गति का वर्णन किया गया है (छां. ५.३. ३, ५.६.१) उसले, और वेदान्तसूत्रों में उसके अर्थ का जो निर्णय किया गया है (वेसू. ३. ३. १-७) उससे, यह स्पष्ट हो जाता है कि, लिंगशरीर में पानी, तेज और अन्न-इन तीनों मूलतत्त्वों का समावेश किया जाना छांदोग्योपनिषद् को भी अभिप्रेत है। सारांश यही देख पड़ता है कि, महदादि अठारह सूक्ष्म तत्वों से यने हुए सांख्यों के लिंग-शरीर' में ही प्राण और धर्माधर्म अर्थात् कर्म को भी शामिल कर देने से वेदान्त-मतानुसार लिंग- शरीर हो जाता है। परन्तु सांख्यशास्त्र के अनुसार प्राण का समावेश ग्यारह इन्द्रियों की वृत्तियों में ही, और धर्म-अधर्म का समावेश युद्धीन्द्रियों के व्यापार में ही, हुआ करता है। अतएव उक्त भेद के विषय में यह कहा जा सकता है कि वह केवल शाब्दिक है-वस्तुतः लिंग-शरीर के घटकावयव के सम्बन्ध में वेदान्त और सांख्य-मतों में कुछ भी भेद नहीं है । इसी लिये मैत्र्युपनिपद् (६. २०) में "महदादि सूक्ष्मपर्यंत " यह सांख्योक्त लिंग-शरीर का लक्षा, "महादायवि- शेषांत" इस पर्याय से ज्यों का त्यों रख दिया है. भगवद्गीता (१५.७)में, पहले यह बतला कर कि "मनः पष्टानीन्द्रियाणि ". मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ही का सूक्ष्म शरीर होता है-, आगे ऐसा वर्णन किया है कि "वायुगंधानिवाशयात्" (३५.८)-जिस प्रकार हवा फूलों की सुगन्ध को हर लेती है उसी प्रकार जीव, स्यूल शरीर का त्याग करते समय, इस लिंग-शरीर को अपने साथ ले जाता है। तथापि, गीता में जो श्रध्यात्म-ज्ञान है वह उपनिषदों ही में से लिया गया है, इस- लिये कहा जा सकता है कि, 'मनसहित छः इन्द्रियाँ इनशब्दों में ही पाँच करें- न्द्रिया, पञ्चतन्मानाएँ, प्राण और पाप-पुण्य का संग्रह भगवान् को अभिप्रेत है। मनुस्मृति (१२. १६, १७) में भी यह वर्णन किया गया है, कि मरने परमनुष्य

  • आनंदाश्रम पूना से प्रकाशित द्वात्रिंशदुपनिपदों की पोथी में भैयुपनिषद् के उपयुक्त मंत्र

का "महदाय विशेपान्तपाठ है और उमी को टीकाकार ने मी माना है। यदि यह पाठ लिया जाय तो लिंगशरीर में आरंभ के महत्तव का समावेश करके विशेषान्त पद से सूचित विशेष अर्थात् पञ्चमहाभूतों को छोड़ देना पड़ता है । यानी, यह अर्थ करना पड़ता है कि, महदायं में से महद को ले लेना और विशेषान्त में से विशेष को छोड़ देना चाहिये । परन्तु जहाँ आयन्त का उपयोग किया जाता है वहाँ उन दोनों को लेना या दोनों को छोड़ना युक्त होता है। अतएव प्रो. डॉयसेन का कथन है कि,महदार्य पद के अन्तिम अक्षर का अनुसार निकाल कर " महदाद्यविशेषान्तन् " (महदादि-विशेषान्तम् ) पाठ कर देना चाहिये। ऐसा करने पर अविशेष पद वन जाने से, महत और अविशेष मांद आदि और मंत दोनों को भी एक ही न्याय पर्याप्त होगा और लिंगशरीर में दोनों का ही समावेश किया जा सकेगा। यही इस पाठ का विशेष गुण है। परन्तु, स्मरण रहे कि, पाठ कोई भी लिया जाय अर्थ में भेद नहीं पड़ता। - ।