विश्व की रचना और संहार। १८७ हो गई, कि मनुष्य का शरीर केवल पंचमहाभूती से बना ही नहीं है किन्तु वन पंचमहाभूतों में से हर एक पाँच प्रकार से शरीर में विभाजित भी हो गया है, उदाहरणार्थ, त्यक, मांस अस्थि, मजा और मायु ये पाँच विभाग अन्नमय पृथ्वी-सत्य के हैं, इत्यादि (मभा. शां. १८४, २०-२५, मार दासयोध १७.५ देखो) प्रतीत होता है कि, यह फल्पना भी उपयुक्त छांदोग्योपनिपद के निय. त्करण के वर्णन से सूझ पड़ी है । क्योंकि, वहाँ भी अन्तिम वर्णन यही है कि, 'तेज, आप और पृथ्वी इन तीनों तत्वों में से प्रत्येक, तीन तीन प्रकार से मनुष्य की देह में पाया जाता है। इस बात का विवेचन हो चुका कि, मूल अव्यक्त प्रगति से, अथवा पेदान्त- सिद्धान्त के अनुसार परमात से, अनेक नाम और रूप धारण करनेवाले सृष्टि के अचेतन अर्थात् निवि या जद पदार्थ कैसे बने है । अप इस का विचार करना चाहिये कि सृष्टि के सचेतन अर्थात् सजीव प्राणियों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सांख्य- शास का विशेष कथन क्या है और फिर यह देखना चाहिये कि वेदान्तशाल के सिद्धान्तों से उसका कहीं तक मेल है।जय मूल प्रकृति से प्रादुर्भूत पृथ्वी आदि यूल पंचमहाभूतों का संयोग सूक्ष्म इन्द्रियों के साथ होता थे तब उससे सजीव प्राणियों का शरीर बनता ई । परन्तु, ययपि यह शरीर सेंद्रिय हो, तथापि वह जड़ ही रहता है। इन इन्द्रियों को प्रेरित करनेवाला तस्व, जड़ प्रकृति से मिल होता है, जिसे 'पुरुप ' कहते हैं। सांज्यों के इन सिन्हान्तों का वर्णन पिछले प्रकरण में किया जा चुका है कि ययपि मूल में 'पुरुष' अफर्ता है, तथापि प्रकृति के साथ उसका संयोग होने पर सजीव सृष्टि का प्रारम्भ होता है और, "मैं प्रकृति से भिन्न हूँ" यह मान हो जाने पर, पुरुष का प्रकृति से संयोग छूट जाता है तथा वह मुक्त हो जाता है। यदि ऐसा नहीं होता तो जन्म-मरण के घर में उसे घूमना पड़ता परन्तु इस बात का विवेचन नहां किया गया कि जिस 'पुरुष' की मृत्यु प्रकृति और पुरुप की भिाता का ज्ञान हुए बिना ही हो जाती है, उसको नये नये जन्म फैसे प्राप्त होते हैं। प्रतएव यहाँ इसी विषय का कुछ अधिक विवेचन करना आवश्यक जान पड़ता है। यह स्पष्ट है कि, जो मनुष्य यिना ज्ञान प्राप्त किये ही मर जाता है उसका आत्मा प्रकृति के चक्र से सदा के लिये छूट नहीं सकता । क्योंकि यदि ऐसा हो, तो ज्ञान अथवा पाप-पुण्य का कुछ भी महत्व नहीं रह जायगा और फिर, चार्वाक के मतानुसार यही कहना पड़ेगा कि, मृत्यु के बाद हर एक मनुष्य प्रकृति के फंदे से छूट जाता है अर्थात् वह मोक्ष पा जाता है। मच्छा पदि यह कह कि मृत्यु के याद केवल आत्मा अर्थात् पुरुप बच जाता है और वही स्वयं नये नये जन्म लिया करता है, तो यह मूलभूत सिद्धान्त-कि पुरुष अकर्ता और उदासीन है और सब कर्तृत्व प्रकृति ही का है-मिथ्या प्रतीत होने लगता है। इसके सिवा, जय हम यह मानते हैं कि, आत्मा स्वयं ही नये नये जन्म लिया करता है, तब यह उसका गुण या धर्म हो जाता है और तब तो, ऐसी अनवरूपा
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