१८२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । तो सांख्य-मत के अनुसार ही विकार, अर्थात् दूसरे तत्वों से उत्पन्न हुए, है। इस कारण उन्हें प्रकृति में अथवा मुलभूत पदार्थों के वर्ग में सम्मिलित नहीं कर सकते । अव ये नौ तत्व शेप रहे-१ पुरुप, २ प्रकृति ३-६ महत, अहंकार और पाँच तन्मात्राएँ। इनमें से पुरुष और प्रकृति, को छोड़ शेप सात तन्त्रों को सांख्या ने प्रकृति-विकृति कहा है। परन्तु वेदान्तशास्त्र में प्रकृति को स्वतन्त्र नमान कर यह सिद्धान्त निश्चित किया है कि, पुरुष और प्रकृति दोनों एक ही परमेम्बर से उत्पन्न होते हैं । इस सिद्धान्त को मान लेने से, सांख्यों के मूलप्रकृति' और । प्रकृति-विकृति ' भेदों के लिये, स्थान ही नहीं रह जाता । क्योंकि, प्रकृति भी परमेश्वर से उत्पन्न होने के कारण मूल नहीं कही जा सकती, किन्तु वह प्रकृति-विकृति के ही वर्ग में शामिल हो जाती है। अतएव, सृष्ट्युत्पत्ति का वर्णन करते समय, वेदान्ती कहा करते हैं कि, परमेश्वर ही से एक और जीव निर्माण हुआ और दूसरी ओर (महदादि सात प्रकृति-विकृति सहित) अष्टधा अर्थात् आठ प्रकार की प्रकृति निर्मित हुई (ममा. शां. ३०६. २६ और ३१०. १० देखो)। अर्थात, वेदान्तियों के मत से, पचीस तावों में से सोलह तत्त्वों को छोड़ शेप नौ तत्वों के केवल दो ही वर्ग किये जाते हैं-एक 'जीव' और दूसरी 'अष्टधा प्रकृति'। भगवहीता में, वेदांतियों का यही वर्गीकरण स्वीकृत किया गया है। परन्तु इसमें भी अंत में थोड़ा सा फर्क हो गया है। सांख्ययादी जिसे पुरुप कहते हैं उसे ही गीता में जीव कहा है और यह बतलाया है कि, वह (जीव) ईश्वर की परा प्रकृति अर्थात् श्रेष्ट स्वरूप है; और सांख्यवादी जिसे मूलप्रकृति कहते हैं उसे ही गीता में परमेश्वर का 'अपर' अर्थात कनिष्ठ स्वरूप कहा गया है (गी.७.४.५), इस प्रकार पहले दो यड़े बड़े वर्ग कर लेने पर उनमें से दूसरे वर्ग के अर्थात् कनिष्ट स्वरूप के जय प्रौर भी भेद या प्रकार यतलाने पड़ते हैं, तब इस कनिष्ठ के स्वरूप के अतिरिक्त उससे उपजे हुए शेप तत्त्वों को भी बतलाना आवश्यक होता है। क्योंकि, यह कनिष्ठ स्वरूप (अर्थात् सांख्यों की मूलप्रकृति) स्वयं अपना ही एक प्रकार या भेद हो नहीं सकता । उदाहरणार्थ, जव यह बतलाना पड़ता है कि याप के लड़के कितने हैं, तब उन लड़कों में ही बाप की गणना नहीं की जा सकती। अतएव, परमेश्वर के कनिष्ठ स्वरूप के अन्य भेदों को बतलाते समय, यह कहना पड़ता है कि, वेदान्तियों की अष्टधा प्रकृति में से मूल प्रकृति को छोड़ शेष लात तत्व ही (अर्थात् महान्, अहंकार, और पञ्चतन्मात्राएँ) उस मूलप्रकृति के भेद या प्रकार ह। परन्तु ऐसा करने से कहना पड़ेगा कि परमेश्वर का कनिष्ठ स्वरूप (अर्थात् मूलप्रकृति) सात प्रकार का है और, जपर कह आये हैं, कि वेदान्ती तो प्रकृति को अष्टधा अर्थात् आठ प्रकार की मानते हैं। अब इस स्थान पर, यह विरोध देख पड़ता है कि जिस प्रकृति को वेदान्ती अष्टधा या आठ प्रकार की कई सी को गीता सप्तधा या सात प्रकार की कहे ! परन्तु गीताकार को अभीष्ट था कि उक्त विरोध दूर हो जावे और 'अष्टधा प्रकृति का वर्णन बना रहे। इसीलिये महान्, अहंकार
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२२१
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।