पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२१३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१७४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । प्रकृति में पहले बुद्धि-गुण का प्रादुर्भाव होता है। प्रकृति में प्रथम उत्पन्न होनेवाले इस गुण को, यदि आप चाहें तो,अचेतन अथवा अस्वयंवेद्य अर्थात अपने आपको ज्ञात न होनेवाली बुद्धि कह सकते हैं। परन्तु, उसे चाहे जो कहें, इसमें सन्देश नहीं कि मनुष्य को होनेवाली बुद्धि और प्रकृति को होनेवाली बुद्धि दोनों मूल में एक ही श्रेणी की है और इसी कारण दोनों स्थानों पर उनकी व्याख्याएँ भी एक ही सी की गई हैं। इस बुद्धि के ही 'महत, ज्ञान, मति, आसुरी, प्रज्ञा, ख्याति आदि अन्य नाम भी हैं। मालूम होता है कि इनमें से महत्' (पुडिंग का का एकवचन महान् बड़ा) नाम इस गुण की श्रेष्ठता के कारण, दिया गया होगा, अथवा इसलिये दिया गया होगा कि अव प्रकृति बढ़ने लगती है। प्रकृति में पहले उत्पन्न होनेवाला महान् अथवावुद्धि-गुण 'सत्त्व-रज-तम' के मिश्रण ही का परिणाम है, इसलिये प्रकृति की यह बुद्धि यद्यपि देखने में एक ही प्रतीत होती हो तथापि यह आगे कई प्रकार की हो सकती है। क्योंकि ये गुण-सत्त्व, रज और तम-प्रथम दृष्टि से यद्यपि तीन ही हैं, तथापि विचार-दृष्टि से प्रगट होजाता है कि इनके मिश्रण में प्रत्येक गुण का परिमाण अनंत रीति से भिन्न भिन्न हुआ करता है, और, इसी लिये, इन तीनों में से प्रत्येक गुण के अनंत भिन्न परिमाण से उत्पन्न होनेवाले बुद्धि के प्रकार भी विधात अनंत हो सकते हैं ! अध्यक प्रकृति से निर्मित होनेवाली यह बुद्धि भी प्रकृति के ही सदृश सूक्ष्म होती है। परन्तु पिछने प्रकरण में 'व्यक' और अन्यक्त ' तथा 'सूक्ष्म' और 'स्थूल ' का जो अर्थ घतलाया गया है उसके अनुसार, यह बुद्धि प्रकृति के समान सूक्ष्म होने पर भी उसके समान अव्यक्त नहीं ई-मनुष्य को इसका ज्ञान हो सकता है । अतएव, अव यह सिद्ध हो चुका कि इस बुद्धि का समावेश व्यक में (अर्थात् मनुष्य को गोचर होनेवाले पदार्थों में) होता है और सांख्यशास्त्र में, न केवल बुद्धि किन्तु धुद्धि के भागे प्रकृति के सव विकार भी व्यक्त ही माने जाते हैं। एक मूल प्रकृति के सिवा कोई भी अन्य तत्व अन्यक नहीं है। इस प्रकार, यद्यपि अव्यक प्रकृति में यक व्यवसायात्मिक बुद्धि उत्पन्न होजाती है, तथापि प्रकृति अब तक इकसा ही बनी रहती है। इस इकसा-पन का भंग होना और वहुसा-पन या विविधात्व.का उत्पन्न होना ही पृथक्त्व कहलाता है । उदाहरणार्थ, पारे काज़मीन पर गिरना और उनकी अलग अलग छोटी छोटी गोलियाँ. बन जाना । बुद्धि के बाद जव तक यह पृथक्ता या विविधता उत्पन्न न हो, तब तक एक प्रकृति के अनेक पदार्थ हो जाना संभव नहीं। बुद्धि से आगे उत्पन्न होनेवाली इस पृथक्ता के गुण को ही 'अहंकार ' कहते हैं । क्योंकि पृथकूता मैं-तू' शब्दों से ही प्रथम व्यक्त की जाती है और मैं तू' का अर्थ ही अई-कार, अथवा महं अहं (मैं-मैं ) करना, है । प्रकृति में उत्पन्न होनेवाले अहंकार के इस गुण को, यदि आप चाहें तो, अस्वयंवेद्य अर्थात् अपने श्राप को ज्ञात न होनेवाला अहंकार कह सकते हैं। परन्तु, सरण रहे कि नुष्य में प्रगट होनेवाला अहंकार, और वह