विश्व की रचना और संहारः। मतलब नहीं है, कि वेदान्तियों ने अथवा पौराणिकों ने यह ज्ञान कपिल से प्राप्त किया है। किन्तु यहाँ पर केवल इतना ही अर्थ अभिप्रेत है, कि सृष्टि के उत्पत्ति-ग्रम का ज्ञान सर्वत्र एक सा देख पड़ता है। इतना ही नहीं; किन्तु यह भी कहा जा सकता है, कि यहाँ पर सांख्य शब्द का प्रयोग 'ज्ञान' के व्यापक अर्थ ही में किया गया है। कपिलाचार्य ने सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम का वर्णन शास्त्रीय दृष्टि से विशेष पद्धति-पूर्वक किया है और भगवद्गीता में भी विशेष करके इसी सांख्य-क्रम का स्वीकार किया गया है। इस कारण उसी का विवेचन इस प्रकरण में किया जायगा। सांख्यों का सिद्धान्त है कि, इन्द्रियों को अगोचर अर्थात अश्यक्ता, सूदम, और चारों ओर प्रखंदित भरे हुए एक ही निस्वयव मूल द्रव्य से, सारी व्यक्त सृष्टि उत्पन्न हुई है। यह सिद्धान्त पश्चिमी देशों के अर्वाचीन प्राधिभौतिक शास्त्रों को प्राय है । प्राय ही क्यों, अब तो उन्हों ने यह भी निश्चित किया है, कि इस मूल द्रव्य की शक्ति का प्रमशः विकास होता आया है, और इस पूर्वीपर क्रम को छोड़ अचानक या निरर्थक कुछ भी निर्माण नहीं हुआ है । इसी मत को उत्क्रान्ति-वाद या विकास-सिद्धान्त कहते हैं । जय यह सिद्धान्त पश्चिमी राष्ट्रों में, गत शताब्दी में, पहले पहल ढूंढ़ निकाला गया, तय वहाँ यड़ी खलबली मच गई थी। ईसाई धर्म-पुस्तकों में यह वर्णन है कि, ईश्वर ने पञ्चमहाभूतों को और अंगम वर्ग के प्रत्येक प्राणी की जाति को भिन्न भिन्न समय पर पृथक् पृथक् और स्वतंत्र निर्माण किया है और इसी मत को, उत्क्रान्ति-चाव के पहले, सय ईसाई लोग सत्य मानते थे। अतएव, जब ईसाई धर्म का उक्त सिद्धान्त उत्कान्ति-याद से असत्य ठहराया जाने लगा, तय उत्क्रान्ति-यादियों पर खूय ज़ोर से प्राक्रमण और कटाक्ष होने लगे। ये कटाक्ष आज कल भी न्यूनाधिक होते ही रहते हैं। तथापि, शास्त्रीय सत्य में प्राधिक शक्ति होने के कारण, सृष्टयुत्पत्ति के संबंध में सय विद्वानों को उत्क्रान्ति मतही आज फल प्राधिक प्रास होने लगा है । इस मत झा सारांश यह है:- सूर्यमाला में पहले कुछ एफ ही सूक्ष्म द्रव्य था; उसकी गति अथवा उम्णता का परिमाण घटता गया तब उक्त द्रव्य का अधिकाधिक संकोच होने लगा और पृथ्वी समेत सय ग्रह क्रमशः उत्पन्न हुए; अंत में जो शेष अंश यचा, वही सूर्य है। पृथ्वी का भी, सूर्य के सश, पहले एक उण गोला था; परन्तु ज्यों ज्यों उसकी उष्णता कम होती गई त्यों त्यों भूल द्रव्यों में से कुछ द्रव्य पतले और कुछ घने हो गये। इस प्रकार पृथ्वी के ऊपर की हवा और पानी तथा उसके नीचे का पृथ्वी का अड़ गोला-ये तीन पदार्थ वने और इसके याद, इन तीनों के मिश्रण अथवा संयोग से सय सजीव तथा निर्जीव सृष्टि उत्पन्न हुई है। दार्विन प्रभृति पंडितों ने तो यह प्रति- पादन किया है, कि इसी तरह मनुष्य भी छोटे कीड़े से यढ़ते पढ़ते अपनी वर्तमान अवस्था में आ पहुँचा है। परन्तु अब तक प्राधिभौतिकवादियों में और अध्यात्म- वादियों में इस बात पर बहुत मतभेद है, कि इस सारी सृष्टि के भूल में आत्मा जैसे किसी भिन्न और स्वतंत्र तख को मानना चाहिये था नहीं । इकल के सश
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२१०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।