पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/२०५

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गीतारहस्य अयषा कर्मयोगशास्त्र। मृत्यु और जीवन अलग अलग है, और जव इस जगत में हम यह मेद पाते हैं कि कोई सुखी है तो कोई दुःखी है, तब मानना पड़ता है कि प्रत्येक आत्मा या पुरुष मूल से ही मिन्न है और उनकी संख्या मी अनंत ई (सां. का. १८) केवल प्रकृति और पुरुष ही सय सृष्टि के मूलतत्त्व है सही; परंतु उनमें से पुरुष शब्द में, सांख्य-वादियों के मतानुसार 'असंक्ष्य पुरुषों के समुदाय ' का समावेश होता है। इन असंख्य पुरुषों के और त्रिगुणात्मक प्रकृति के संयोग से सृष्टि का संबं व्यवहार हो रहा है। प्रत्येक पुरुष और प्रकृति का जव संयोग होता है तब प्रकृति अपने गुणों का जाला उस पुरुष के सामने फैलाती है और पुरुष टपमा सपभोग करता रहता है। ऐसा होते ते जिस पुरुप के चारों ओर की प्रकृति के खेल सात्विक हो जाते हैं, उस पुरुष को ही (सब पुरुषों को नहीं) सचा ज्ञान प्राप्त होता है और उल पुरुप के लिये ही, प्रकृति के मय खेल बंद हो जाते हैं एवं वह अपने मूल तथा कैवल्य पद को पहुंच जाता है। परन्तु यद्यपि उस पुरुष को मोक्ष मिल गया, तो भी शेप सब पुरुषों को संसार में फंसे ही रहना पड़ता है। कदाचित कोई यह समझो, कि ज्याही पुरुष इस प्रकार केवला पद को पहुँच जाता है त्योंही वह एकदम प्रकृति के जाने से छूट जाता होगा; परन्तु सांख्य-मत के अनुसार यह समझ गलत है। देह और इन्द्रिय रुपी प्रकृति के विकार, उस मनुष्य की मृत्यु तक उसे नहीं छोड़ते । सांख्य-वादी इसका यह कारण बतलाते हैं कि, "जिस प्रकार कुम्हार का पहिया, घड़ा वन कर निकाल लिया जाने पर मी, पूर्व संस्कार के कारण कुछ देर तक घूमता ही रहता है। उसी प्रकार कैवल्य पद की प्राप्ति हो जाने पर भी उस मनुष्य का शरीर कुछ समय तक शेप रहता है" (सां. का. ६७) । तथापि उस शरीर से, कैवल्य पद पर आरूढ़ होनेवाले पुरुष को कुछ मी. अड़चन या सुख- दुःख की बाधा नहीं होती । क्योंकि, यह शरीर जड़ प्रकृति का विकार होने के कारण स्वयं जड़ ही है, इसलिय इसे सुख-दुःख दोनों समान ही हैं और यदि यह कहा जाय कि पुरुप को सुख-दुःख की बाधा होती है तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि उसे मालूम है कि में प्रकृति से भिन्न हूँ, सय कर्तृत्व प्रकृति का है, मेरा नहीं । ऐसी अवस्था में प्रकृति के मनमाने खेल हुआ करते हैं; परन्तु उसे सुख दुःख नहीं होता और वह सदा उदासीन ही रहता है। जो पुरुष प्रकृति के तीनों गुणों से छूट कर यह ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेता, वह जन्म-मरण से छुट्टी नहीं पा सकता; चाहे वह सत्वगुण के उत्कर्ष के कारण देवयोनि में जन्म ले, या रजोगुण के उत्कर्ष के कारण मानव-योनि में जन्म ले, या तमोगुण की प्रबलता के कारण पशु-कोटि में जन्म लेवे (सां. का. ४४, ५)। जन्म-मरणरूपी चक्र के ये फल, प्रत्येक मनुष्य को उसके चारों ओर की प्रकृति अर्थात् उसकी बुद्धि के सत्त्व-रज-तम गुणों के उत्कर्ष-अपकप के कारण प्राप्त हुआ करते हैं गीता में भी कहा है कि "जर्व गच्छन्ति सत्त्वस्थाः " सात्विक वृत्ति के पुरुष स्वर्ग को जात हैं और तामस पुरुषों को अधोगति प्राप्त होती है (गी. १४.१८)। परन्तु स्वर्गादि फल अनित्य हैं।