गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाम। केवल अात् निर्गुण होने के कारण स्वयं कर्म करने के कोई साधन उसके पास नहीं हैं और प्रकृति यद्यपि काम करनेवाली है, तयापि जड़ या अचेतन होने के कारण वह नहीं जानती कि क्या करना चाहिये । इस प्रकार लंगड़े और अंध की यह जोड़ी है। जैसे अंधे के कंधे पर लँगड़ा बेटे और वे दोनों एक दूसरे की सहायता से मार्ग चनने लगे, वैसे ही अचेतन प्रकृति और सचेतन पुरुप का संयोग हो जाने पर सृष्टि के सब कार्य प्रारम्भ हो जाते है (सां. का. २१)। और जिस प्रकार नाटक की रंगभूमि पर प्रैनकों के मनोरंजनार्य एक ही नटी, कमी एक तो कमी दूसरा ही स्वाँग बना कर नाचती रहती है। इसी प्रकार पुरुष के लाम के लिये (पुरुपार्य के लिये), यद्यपि पुरुप कुछ मी पारितोषिक नहीं देता तो भी, यह प्रकृति साब-रज-तम गुणों को न्यूनाधिकता से अनेक रूप धारण करके उसके सामने लगातार नाचती रहती है (सां.का. ५६) प्रकृति के इस नाच को देख कर, मोह से भूल जाने के कारण या वृयामिमान के कारण, जब तक पुरुष इस प्रकृति के कर्तृत्व को स्वयं अपना ही कतृत्व मानता रहता है और जब तक वह सुख दुःख के काल में स्वयं अपने को फंसा रखता है, तब तक उसे मोक्ष या मुक्ति की प्राति कमी नहीं हो सकती (गी. ३. २७)। परन्तुं जिस समय पुरुष को यह ज्ञान हो जाय कि निगुग्यात्मक प्रकृति भिन्न है और मैं भिन्न हूँ, उस समय वह मुक ही है (गी. १३.२८,३०,१४. २०); क्योंकि, ययार्य में पुल्प न तो कत्ता है और न बँधा ही है-वह तो स्वतंत्र और निर्गतः केवल या अकती है। जो कुछ होता जाता है वह सब प्रकृति ही का खेल है। यहाँ तक कि मन और शुद्धि भी प्रकृति के ही विकार हैं, इसलिये बुद्धि को जो ज्ञान होता है वह मी प्रकृति के कार्यों का ही फल है। यह ज्ञान तीन प्रकार का होता है जैसे सास्विफ राजस और तामस (गी. १८. २०-२२)। जब बुद्धि को साविक ज्ञान प्राप्त होता है तब पुरुष को यह मालूम होने लगता है कि में प्रकृति से भिन्न हूँ। सत्त्वरज- तनो-गुण प्रकृति केही धर्म है, पुरुष के नहीं। पुरुप निर्गुण है और त्रिगुणात्मक प्रकृति उसका दर्पण है (ममा. शां. २०४.) [जब यह दर्पण स्वच्छ या निमंज हो जाता है, अर्थात् जब अपनी यह बुद्धि, जो प्रकृति का विकार है, लाविक हो जाती है, तब इस निर्मल दर्पण में पुरुप को अपना वास्तविक स्वरूप दीखने लगता है और ससे यह बोध हो जाता है कि मैं प्रकृति से मिज दक्ष समय यह प्रकृति लजित. हो कर दस पुरुप के सामने नाचना, खेलना या जाल फैलाना बंद कर देती है। जव यह अवस्था प्राप्त हो जाती है तर पुरुष सब पाशों या जालों से मुक्त हो कर अपने स्वाभाविक कैवल्य पद को पहुँच जाता है । 'कैवल्य' शब्द का अर्थ है केवलता, अकज्ञापन, या प्रकृति के साथ संयोग न होना । पुरप को इस नैसर्गिक या स्वामाविक स्थिति को ही सायशास्त्र में मोक्ष (मुकि या छुटकारा) कहते हैं। इस अवस्या के विषय में सांस्य-वादियों ने एक यदुत ही नाजुक अन्न का विचार उपस्थित किया है। उनका प्रश्न है, कि पुरुप प्रकृति को छोड़ देता है या प्रकृति
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