कापिलसांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षाविचार। १५१ पानी के परमाणु में तीन गुगा । तेज के परमाणु में दो गुण हैं और वायु के पर- माणु में एक ही गुण है। इस प्रकार सब जगत् पहले से ही सूक्ष्म और नित्य पर- माणुओं से भरा हुआ है। परमाणुओं के लिवा संसार का मूल कारण और कुछ भी नहीं है । जब सूनम और नित्य परमाणुयों के परस्पर संयोग का प्रारंभ' होता है, तब सृष्टि के न्यफ पदार्य बनने लगते हैं। मैग्यायिकों द्वारा प्रतिपादित, सृष्टि की उत्पत्ति के सम्बन्ध की, इस कल्पना को आरंभ-याद करते हैं। कुछ नैय्यायिक इसके आगे कभी नहीं बढ़ते । एक मैग्यायिक के बारे में कहा जाता है कि, मृत्यु के समय जब इससे ईश्वर का नाग लेने को कहा गया तब वह पीलवः! पीलवः!' -परमाणु ! परमाणु ! परमाणु !-चिला उठा । कुछ दूसरे नैरयायिक यह मानते हैं कि परमाणुओं के संयोग का निमित्त कारण ईकर है । इस प्रकार वे सृष्टि की कारण-परंपरा की श्रृंखला को पूर्ण कर लेते हैं। ऐसे मेव्याधिकों को सेश्वर कहते हैं । वेदांतसूत्र के दूसरे अध्याय के दूसरे पाद में इस परमाणुयार का (२.२. ११-१७), और उसके साथ ही साथ "धर केवल निमिरा कारण है," इस मत का भी (२.२.३७-३६) खंडन किया गया है। उल्लिखित परमाणु-बाद का वर्णन पढ़ कर अंग्रेजी पढ़े-लिखे पाठकों को पर्या- चीन रसायन शासन वाल्टन के परमाणु-वाद का प्रयश्य ही स्मरण शेगा। परंतु, पश्चिमी देशों में प्रसिद्ध सृष्टिशारसज्ञ डार्विन के उत्कांति-वाद ने जिस प्रकार वाल्टन के परमाणु-वाद की जड़ ही उखाड़ दी है, उसी प्रकार हमारे देश में भी प्राचीन समय में सरत्य-मत ने कणाद के मत की बुनियाद दिला साली ची । कणाद के भानुयायी यह नहीं बसला सकते कि मूल परमाणु को गति से मिली । इसके यतिरिक्त वे लोग इस बात का भी यथोचित निर्णय नहीं कर सकते कि वृक्ष, पशु, मनुष्य इत्यादि सचेतन प्राणियों की क्रमशः बहती हुई श्रेणियों कैसे बनी और अचे- तन को सचेतनता कैसे प्राप्त हुई । यह निर्णय, पश्चिमी देशों में उन्नीसवीं सदी में लेमार्क और सार्विन ने, तथा हमारे यहाँ प्राचीन समय में कपिल मुनि ने, किया है। इन दोनों मतों का यही तात्पर्य है कि, एक ही मूल पदार्य के गुणों का विकास हुआ और फिर धीरे धीरे सब सृष्टि की रचना होती गई । इस कारण पहले हिन्दु- स्थान में, और लय पश्चिमी देशों में भी, परमाणु-पाद पर विश्वास नहीं रहा है। प्रय तो आधुनिक पदार्थशास्त्रज्ञों ने यह भी सिद्ध कर दिखाया है कि परमाणु अविभाज्य नहीं है । आज कल जैसे सृष्टि के अनेक पदार्थों का पृथकारण और परीक्षण करके, अनेक सृष्टिशास्त्रों के आधार पर परमाणु-वाद या उत्क्रांति-याद को सिद्ध कर दे सकते हैं, वैसे प्राचीन समय में नहीं कर सकते थे । सृष्टि के पढ़ाया पर नये नये और भिन्न भिन्न प्रयोग करना, अथवा अनेक प्रकार से उनका पृथारा करके उनके गुण-धर्म निशित करना, या सजीव सृष्टि के नये-पुराने अनेक प्राणियों के शारीरिक अवयवों की एक तुलना करना, इत्यादि प्राधिभौतिक शास्त्रों की अर्वाचीन युक्तियों कणाद या कपिल को मालूम नहीं थी । उस समय उनकी दृष्टि
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