प्रस्तावना 23 . है; और कान्ट की अपेक्षा प्रीन की नैतिक उपपत्ति गीता से कहीं अधिक मिलती जुलती है। परन्तु इन दोनों प्रश्रों का खुलासा जव इस ग्रन्थ में किया ही गया है. तब यहाँ उन्हीं को दुहराने की आवश्यकता नहीं है । इसी प्रकार पण्डित सीतानाथ तत्त्वभूपण कर्तृक कृष्ण और गीता' नामक एक अंग्रेज़ी अन्य भी इन दिनों प्रकाशित हुआ है । इसमें उता पण्डितजी के गीता पर दिये हुए चारह व्याख्यान हैं । किन्तु उक्त प्रन्यों के पाठ करने से कोई भी आन लेगा कि तच्च- भूपणजी के अथवा मि० बस के प्रतिपादन में और हमारे प्रतिपादन में बहुत अन्तर है । फिर भी इन लेखों से झात होता है कि गीताविषयक हमारे विचार कुछ अपूर्व नहीं हैं; और इस सुचिन्ह का भी ज्ञान होता है कि गीता के कर्मयोग की भार लोगों का ध्यान अधिकाधिक आकर्षित हो रहा है । अतएव यहाँ पर हम इन सब आधुनिक लेखकों का आभनन्दन करते हैं। . " यह अन्य मण्डाले में लिख तो लिया गया था, पर लिखा गया था पेंसिल से; और काट-छाँट के अतिरित्ता इसमें और भी कितने ही नये सुधार किये गये थे । इसलिये सरकार के यहाँ से इसके लौट आने पर प्रेस में देने के लिये शुद्ध कापी करने की आवश्यकता हुई । और यदि यह काम हमारे ही भरोसे पर छोड़ दिया जाता, तो इसके प्रकाशित होने में और न जाने कितना समय लग गया होता! परन्तु श्रीयुत चामन गोपाल जोशी, नारायण कृष्ण गोगटे, रामकृष्ण दत्तात्रय पराडकर, रामकृष्ण सदाशिव पिंपुटकर, अण्याजी विष्णु कुलकर्णी प्रभृति सजनों ने इस काम में बड़े उत्साह से सहायता दी; एतदर्थ इनका उपकार मानना चाहिये। इसी प्रकार श्रीयुत कृष्णाजी प्रभाकर सादिलकर ने, और विशेषतया पदेशास्त्रसम्पन्न दीक्षित काशीनाथ शास्त्री लेले ने बम्बई से यहाँ आकर, ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रति को पढ़ने का कष्ट उठाया एवं अनेक उपयुक्त तथा मार्मिक सूचनाएँ दी कि जिनके लिये हम इनके प्राणी हैं। फिर भी म्मरण रहे कि, इस ग्रन्थ में प्रतिपादित मतों की ज़िम्मेदारी हमारी ही है । इस प्रकार ग्रन्थ छपने योग्य तो हो गया, परन्तु युद्ध के कारण कागज़ की कमी होनेवाली थी; इस कमी को, बम्बई के स्वदेशी कागज़ के पुतलीघर के मालिक मेसर्स 'डी, पदमजी भौर सन' ने, हमारी इच्छा के अनुसार अच्छा कागज़ समय पर तैयार कर के, दूर कर किया । इससे गीता-ग्रंथ को छापने के लिये अच्छा स्वदेशी कागज़ मिल राका । किन्तु अन्य अनुमान से अधिक बढ़ गया, इससे कगज़ की कमी फिर पड़ी। इस कमी को पूने के पेपर मिल के मालिकों ने यदि दूर न कर दिया होता तो और कुछ महीनों तक पाठकों को अन्य के प्रकाशित होने की प्रतीक्षा करनी पड़ती । अतः उक्त दोनों पुतलीघरों के मालिकों .
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