आधिदैवतपक्ष और क्षेत्रक्षेत्रायिधार । १३६ विचार करके निणय करना पड़ता है ये अनेक प्रऔर भिन मिल हो सकते हैं। से व्यापार, लड़ाई, माजदारी या दीवानी मुकदमे, माहकारी, कृपि सादि अनेक ध्यपसायों में हर मौके पर सार-प्रसार-विग्रेक करना पड़ता है। परन्तु इतने ही से यह नहीं कहा जा सकता कि व्यवसायात्मक पुतियां भी भित्र भित्र अथवा कई प्रकार की होती हैं। सार-प्रसार-वियेफ नाम की क्रिया सर्वत्र एक ही ली है। और, इसी कारण, वियेक सयचा निर्णय करनेपाली पुति भी एक ही होनी चाहिये । परन्तु मन के सश घुद्धि भी शरीर का धर्म है, प्रतण्य पूर्वक्रर्म के अनुसार, पूर्वपरंपरागत या सानुषंगिक संस्कारों के कारगा, 'अथवा शिक्षा प्रादि अन्य कारणों से, यह गन्दि कम या अधिक सात्त्विकी, राजसी गा तामसी हो सकती है। यही कारणाई कि, जो यात किसी एक की युति में गामा प्रतीत होती है वही दूसरे की बुद्धि में अमाला जंचती है। इतने ही से यह नहीं समझ लेना चाहिये, कि पुनि नाम की इन्द्रिय ही प्रत्येक समय. भिन्न भिा रहती ई । साँख ही का उदाहरण लीजिये। किसी की साख तिरती रहती है तो किसी की भद्दी और किसी की कानी; किसी की ष्टि मंद और किसी की साफ रहती है। इससे हम यह कभी नहीं कहते कि नेत्रे- न्द्रिय एक नहीं अनेक ३ । गद्दी न्याय पुद्धि के विषय में भी उपयुक्त होना चाहिये। जिस धुद्धि से चापल अपया गहुँ जाने जाते हैं। जिस युन्धि से पत्थर और हीरे का भेद जाना जाता है जिस पुदि से काले-गोरे गा मीठे-माधुये का ज्ञान होता है। वही बुद्धि इन नप याती के तारतम्य फा विचार परके बतिम निर्णय भी किया करती है कि भय किसमें है और किसमें नहीं, सत और असा क्या है, लाम और शनि किसे कहते हैं, धर्म अघया अधर्म और कार्य मया अकार्य में क्या भेद है, इत्यादि । साधारगा व्यवहार में 'मनोदेवता' कह कर उसका पाद्दे जितना गौरप किया जाय, तपापि तस्यज्ञान की ष्टि से यह पफ ही प्यवसायात्मक धुधि है। इसी अभिप्राय की ओर ध्यान दे कर. गीता के अठारहवं अध्याय में, एक ही बुद्धि के तीन भेद (साविक, राजस और सामस) करके, भगवान् ने अर्जुन को पहले यह बतलाया फि:- प्रवृत्तिं च निवृत्ति च कार्याकायें भयामये ॥ बंध मोक्षं च या पेत्ति यदिः सा पार्थ सात्विको अर्थात् " सान्त्रिक पुदि यह है कि जिले इन बातों का यथार्य ज्ञान -कौन सा काम करना चाहिये, और कौन सा नहीं, कौन सा काम करने योग्य है और कौन सा अयोग्य, किस बात से डरना चाहिये और किस यात से नहीं, किसमें बंधन है और किसमें मोक्ष" (गी. १८.३०)। इसके बाद यह यतलाया है कि:- यया धर्ममधर्म च कार्य चाकार्यमेव च। अयथावत् प्रजानाति बुदिः सा पार्थ राजसी॥ अर्थात् “ धर्म और अधर्म, अथवा कार्य और अकार्य, का यथार्थ निर्णय जो बाडि,
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