गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । और मन भी विगड़ने नहीं पाता । अतएव गीता (२.४१) में कर्मयोगशास्त्र का प्रथम सिद्धान्त यह है, कि पहले व्यवसायास्मिक बुद्धि को शुद्ध और स्थिर रखना चाहिये । केवल गीता ही में नहीं, किन्तु कान्ट • ने भी युद्धि के इसी प्रकार दो भेद किये हैं और शुद्ध अर्थात् व्यवसायात्मक बुद्धि के एवं घ्यावहारिक अर्थात् वासनात्मक युद्धि के, व्यापारों का विवेचन दो स्वतंत्र ग्रन्थों में किया है । वस्तुतः देखने से तो यही प्रतीत होता है कि, व्यवसायात्मिक बुद्धि को स्थिर करना पातं- जल योगशास्त्र ही का विषय है, कर्मयोगशास्त्र का नहीं । किन्तु गीता का सिद्धान्त है कि, कर्म का विचार करते समय उसके परिणाम की ओर ध्यान न दे कर, पहले सिर्फ यही देखना चाहिये कि कर्म करनेवाले. की वासना अर्थात् वासनात्मक बुद्धि कैसी है (गी. २. ४८)। और, इस प्रकार जब वासना के विषय में विचार किया जाता है तव प्रतीत होता है कि, जिसकी व्यवसायात्मिक घुद्धि स्थिर और शुद्ध नहीं रहती, उसके मन में वासनाओं की भिन्न भिन्न तरंग उत्पन्न हुआ करती हैं, और इसी कारण कहा नहीं जा सकता कि, वे वासनाएँ सदैव शुद्ध और पवित्र ही होंगी (गी. २.४१)। जवकि वासनाएँ ही शुद्ध नहीं हैं तब आगे कर्म भी शुद्ध कैसे हो सकता है ? इसी लिये कर्मयोगशास्त्र में भी, व्यवसायात्मक बुद्धि को शुद्ध रखने के लिये, साधनों अथवा उपायों का विस्तार-पूर्वक विचार करने की आवश्यकता होती है और इसी कारण भगवद्गीत के छठे अध्याय में, बुद्धि को शुद्ध करने के लिये एक साधन के तौर पर, पातंजलयोग का विवेचन किया गया है। परन्तु, इस संबंध पर ध्यान न दे कर, कुछ सांप्रदायिक टीकाकारों ने गीता का यह तात्पर्य निकाला है कि, गीता में केवल पातंजलयोग का ही प्रतिपादन किया गया है ! अव पाठकों के ध्यान में यह बात आजायगी. कि, गीताशास्त्र में 'युद्धि' शब्द के उपर्युक्त दोनों अर्थों पर और उन अथों के परस्पर सम्बन्ध पर, ध्यान रखना कितने महत्व का है। इस बात का वर्णन हो चुका कि, मनुष्य के अन्तःकरण के व्यापार किस प्रकार हुआ करते हैं, तया उन व्यापारों को देखते हुए मन और बुद्धि के कार्य कौन कौन से हैं, तथा बुद्धि शब्द के कितने अर्थ होते हैं। अय, मन और व्यवसाया- स्मिक बुद्धि को इस प्रकार पृथक् कर देने पर, देखना चाहिये कि सदसद्विवेक-देवता का यथार्थ रूप क्या है। इस देवता का काम, सिर्फ भले-बुरे का चुनाव करना है। अतएव इसका समावेश 'मन' में नहीं किया जा सकता । और, किसी भी बात का विचार करके निर्णय करनेवाली व्यवसायात्मक बुद्धि केवल एक ही है, इसलिये सदसद्विवेक-रूप 'देवता' के लिये कोई स्वतन्त्र स्थान ही नहीं रह जाता! हाँ, इसमें संदेह नहीं कि जिन यातों का या विषयों का सार-प्रसार- कान्ट ने व्यवसायात्मिक बुद्धि को Pare Reason और वासनात्मक वृद्धि को Practical Reason कहा है।
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