पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१७०

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आधिदैवतपक्ष और क्षेत्रक्षेत्रज्ञविचार । घात को नहीं मानते कि सदसद्विवेचन-शक्ति, सामान्य युद्धि से कोई भिन वस्तु या ईश्वरीय प्रसाद है। प्राचीन समय में इस बात का निरीक्षण सूक्ष्म रीति से किया गया है कि, मनुष्य को ज्ञान जिस प्रकार प्राप्त होता है और उसके मन का या बुद्धि का व्यापार किस तरह हुन्ना करता है। इसी निरीक्षण को । क्षेत्र-क्षेत्रन-विचार । कहते हैं । क्षेत्र का अर्थ 'शरीर' और क्षेत्रज्ञ का अर्थ प्रात्मा' है । यह क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ-विचार अध्यात्मविद्या की जड़ है। इस क्षेत्र-क्षेत्रन-विद्या का ठीक ठीक ज्ञान हो जाने पर, सदसद्विवेक-शक्ति ही की कौन कहे, किसी भी मनौदेवता का अस्तित्व आत्मा के परे या स्वतन्त्र नहीं माना जा सकता । ऐसी अवस्था में प्राधिदेवत पक्ष आप ही आप कमज़ोर हो जाता है। अतएव, अब यही इस क्षेत्र क्षेत्रज्ञ-विधा ही का विचार संक्षेप में किया जायगा । इस विवेचन से भगवद्गीता के पद्धतरे सिद्धान्तों का सत्यार्थ भी पाठकों के ध्यान में अच्छी तरह आजायगा। यह कहा जा सकता है कि मनुष्य का शरीर (पिंद, क्षेत्र या देह) एक यहुत बड़ा कारखाना ही है। जैसे किसी कारखाने में पहले बाहर का गाल भीतर लिया जाता है। फिर उस माल का चुनाव या व्यवस्था करके इस बात का निश्चय किया जाता है कि, कारखाने के लिये उपयोगी और निरुपयोगी पदार्थ कौन से है और तब बाहर से लाये गये कच्चे माल से नई चीजें यनाते और उन्हें बाहर भेजते हैं। वैसे ही मनुष्य की देह में भी प्रतिक्षा अनेक व्यापार हुमा करते हैं। इस सृष्टि के पांचभौतिक पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये मनुष्य की इन्द्रियाँ ही प्रथम साधन हैं। इन इन्द्रियों के द्वारा सृष्टि के पदार्थों का यथार्थ अथवा मूल स्वरूप नहीं जाना जा सकता। आधिभौतिक-यादियों का यह मत है कि, पदार्थों का यथार्य स्वरूप वैसा ही है जैसा कि वह हमारी इन्द्रियों को प्रतीत होता है। परन्तु यदि कल किसी को कोई नूतन इन्द्रिय प्राप्त हो जाय, तो उसकी दृष्टि से सृष्टि के पदार्थों का गुण-धर्म जैसा आज है पैसा ही नहीं रहेगा। मनुष्य की इन्द्रियों में भी दो भेद है--एक कर्मेन्द्रियाँ और दूसरी ज्ञानेन्द्रियाँ । हाथ, पैर, वाणी, गुद और उपस्थ, ये पाँच कमद्रियाँ हैं। हम जो कुछ व्यवहार अपने शरीर से करते हैं वह सब इन्हीं कमद्रियों के द्वारा होता है। नाक, आँख, कान, जीभ और त्वचा, ये पांच ज्ञान- द्रियाँ हैं । आँखों से रूप, जिला से रस, कानों से शब्द, नाक से गन्ध; और त्वचा से स्पर्श का ज्ञान होता है। किसी भी बाह्य पदार्थ का जो हमें ज्ञान होता है वह उस पदार्थ के रूप-रस-शब्द-गन्ध-स्पर्श के सिवा, और कुछ नहीं है। उदाहरणार्थ, एक सोने का टुवाड़ा लीजिये । वह पीला देख पड़ता है, त्वचा को कठोर मालूम होता है, पीटने से लम्बा हो जाता है, इत्यादि जो गुगा इमारी इन्द्रियों को गोचर होते हैं उन्हों को हम सोना कहते हैं। और जब ये गुण बार बार एक ही पदार्थ में एक ही से गोचर होने लगते हैं तब हमारी ष्टि से सोना एक स्वतन्त्र पदार्थ बन जाता है। जिस प्रकार, बाहर का माल भीतर के लिये और भीतर का माल बाहर भेजने के लिये किसी कारखाने में दरवाज़े होते हैं, उसी प्रकार