आधिदैवतपक्ष और क्षेत्रक्षेत्रनविचार । १२३ भाव से,सेर-छटाक के दाम एकदम मुखाग्र गणित की रीति से पतला सकते हैं। इस कारण यह नहीं कहा जा सकता कि गुणाकार करने की उनकी शक्तिया देवता किसी अच्छे गणितज्ञ से भिन्न है। कोई काम, अभ्यास के कारण, इतना सरदी तरह सध जाता है कि, विना विचार किये ही कोई मनुष्य उसको शीघ्र और सरलतापूर्वक कर लेता है। उत्तम लक्ष्यभेदी मनुष्य उड़ते हुए पत्नियों को चनक से सहज मार गिराता है, इससे कोई भी यह नहीं कहता कि लाभेन एक स्वतन्त्र देवता है । इगना ही नहीं, किन्तु निशाना मारना, उड़ते हुए पक्षियों की गति को जानना, इत्यादि शाखीय यातों को भी कोई निरर्थक और त्याज्य नहीं कह सकता । नेपोलियन के विषय में गह बात प्रसिद्ध है कि, जब यह सगरांगण में पड़ा हो कर चारों और गन्मदि से देखता था, तब उसके ध्यान में यह यात एकदम सजाया करती थी कि शत्रु किस स्थान पर कमजोर है। इतने ही से किसी ने यह सिद्धान्त नहीं निकाला कि युद्धकला गुफ स्वतन्त्र देवता है और उसका अन्य मानसिक शानियों से कार भी सम्बन्ध नहीं है। इसमें सन्देह नहीं कि, किसी एक काम में मिली ही न स्वभावतः अधिक काम देती है और किसी की कम; परन्तु सिर्फ इस असमानता को आधार पर ही हम यह नहीं कहते कि दोनों की मुनि वस्तुतः भिन्न है। इसके अतिरिक्त यह बात भी सत्य नहीं कि, कार्य-प्रकार्य का प्रपया धर्म-अधर्म का निर्णय एकाएक हो जाता है। यदि ऐसा ही होता, तो यह प्रश्न ही कमी उपस्थित न होता कि "अमुक काम करना चाहिये प्रथया नहीं करना चाहिये। यह बात प्रगट है कि, इस प्रकार का प्रश्न प्रसंगानुसार अर्जुन की तरह सभी लोगों के सामने उपस्थित हुमा करता है। और, कार्य-कार्य-निर्णय के फुन्द विषयों में, मिरा मिल लोगों के अभिप्राय भी भिन्न भिन्न हुआ करते हैं। यदि सदसद्विवेचनरूप अयम्भू देवता एफ ही है, तो फिर यह भिन्नता क्यों है ? इससे यही कहना पड़ता है कि, मनुष्य की बुद्धि गितनी सुशिक्षित अथवा सुसंस्कृत होगी, उतनी ही योग्यता-पूर्वरु वह पिली बात का निर्णय करेगा । बहुतेरे जंगली लोग ऐसे भी हैं कि जो मनुष्य का वध करना अपराध तो मानते ही नहीं, किन्तु ये मारे हुए मनुष्य का मांस भी सहर्ष सा जाते हैं ! जंगली लोगों की यात साने दीजिये । सभ्य देशों में भी यह देखा जाता है कि, देश के चलन के अनुसार किसी एक देश में जो बात गई समझी जाती वही किसी दूसरे देश में सर्वमान्य समझी जाती है। उदाहरणार्थ, एक सी के रहते हुए दूसरी स्त्री के साथ विवाह करना विलायत में दोप समझा जाता पस्नु हिन्दुस्थान में यह यात विशेष दूपणीय गहीं मानी जाती। भरीसभा में सिर की पगड़ी उतारना हिन्दू लोगों के लिये लना या अमर्यादा की बात है। परन्तु अंग्रेज लोग सिर की टोपी उतारना ही सभ्यता का लवण मानते हैं। यदि यह यात सच कि, ईश्वर- दत्त या स्वाभाविक सदसद्विवेचन-शक्ति के कारण ही पुरे कर्म करने में लता मालूम होती है, तो क्या सब लोगों को एक ही कृत्य करने में एक ही समान लना नहीं मालूम होनी चाहिये ? बड़े बड़े लुटेरे और डाकू लोग भी, एकवार जिसका नमक सा गी.र.१७
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