छठवाँ प्रकरण । आधिदैवत्तपक्ष और क्षेत्रक्षेत्र विचार । सत्यपूतां पदेवाचं मनःपूतं समाचरेत् । * मनु.६.४६। कर्म-अकुर्म की परीक्षा करने का, आधिभौतिक मार्ग के अतिरिक्त, दूसरा पन्य साधिदेवत-पादियों का है। इस पंथ के लोगों का यह कथन है कि,जय कोई मनुष्य फर्म-अकर्म का या कार्य-अकार्य का निर्णय करता है तब वह इस झगड़े में नहीं पड़ता कि किस फर्म से किसे कितना सुख अपवा दुःख होगा, अथया उनमें से सुख का जोड़ अधिक होगा या दुःख का । वह आत्म-अनात्म-विचार की झंझट में भी नहीं पड़ता; और ये झगड़े बहुतेरों की तो समझ में भी नहीं पाते । यह भी नहीं कहा जा सकता, कि प्रत्येक प्रागी प्रत्येक कर्म को केवल अपने सुख के लिये ही करता है। आधिभौतिया चादी कुछ भी कह; परन्तु यदि इस बात का घोड़ा सा विचार किया जाय कि, धर्म-अधर्म का निर्णय करते समय मनुष्य के मन की स्थिति कैसी होती है, तो यह ध्यान में सा वायगा कि मन की स्वाभाविक और उदास मनोवृत्तियाँ-पारगा, दया, परोपकार मादि ही किसी काम को करने के लिये मनुष्य को एकाएक प्रवृत्त किया करती हैं । उदाहरणार्थ, जय कोई भिकारी देख पड़ता है तय मन में यह विचार पाने के पहले ही कि 'दान करने से जगर का अथवा अपने मात्मा का कितना हित होगा' मनुष्य के हृदय में करणाप्रति जागृत हो जाती है और वह अपनी शक्ति के अनुसार उस याचक को कुछ दान कर देता है। इसी प्रकार जय बालक रोता है तब माता उसे दूध पिलाते समय इस थात का कुछ भी विचार नहीं करती कि याराफ को दूध पिलाने से लोगों का कितना हित होगा । अर्थात् ये उदास मनोवृत्तियों ही कर्मयोगशाल की यथार्थ नीच हैं। हमें किसी ने ये मनोहत्तियाँ दी नहीं है, किन्तु ये निसर्गसिद्ध अर्थात् स्वाभाविक, अथवा स्वयंभू, देवता ही है। जब न्यायाधीश न्यायासन पर पैठता है तब उसकी घुद्धि में न्यायदेवता की प्रेरणा हुप्रा करती है और वह उसी प्रेरणा के अनुसार न्याय किया करता है परन्तु जब कोई न्यायाधीश इस प्रेरणा का अनादर करता है तभी उससे अन्याय हुमा करते हैं। न्यायदेवता के सप्शही करुणा, दया, परो. पकार, कृतज्ञता, फतन्य-प्रेम, धैर्य आदि सद्गुणों की जो स्वाभाविक मनोवृत्तियाँ •" वही पोलना चाहिए जो सत्य से पूत अर्थाय शुद्ध किया गया है, और पही आचरण करना चाहिये जो मन को शुद्ध मालूम हो ।"
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