गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाल। करने की पद्धति प्रोन सरीखे ग्रन्थकार द्वारा खुद इंग्लैण्ड में ही शुरू कर दी गई है। और जर्मनी में तो उससे भी पहले यह पद्धति प्रचलित थी। दृश्य सृष्टि का कितना ही विचार करो; परन्तु जब तक यह बात ठीक ठीक मालूम नहीं हो जाती, कि इस सृष्टि को देखनेवाला और कर्म करनेवाला कौन है, तब तक तात्विक दृष्टि से इस विषय फा भी विचार पूरा हो नहीं सकता, कि इस संसार में मनुष्य का परम साध्य, श्रेष्ठ कर्तव्य या अन्तिम ध्येय क्या है । इसी लिये याज्ञवल्क्य का यह उपदेश कि, "आत्मा चा अरे द्रष्टव्यः श्रोतन्यो मन्तन्यो निदिध्यासितन्यः," प्रस्तुत विषय में भी अक्षरशः उपयुक्त होता है। दृश्य जगत् की परीक्षा करने से यदि परोपकार सरीख तत्व ही अन्त में निप्पन्न होते हैं, तो इससे आत्मविद्या का महत्व कम तो होता ही नहीं, किन्तु उलटा उससे सव प्राणियों में एक ही आत्मा के होने का एक और सुबूत मिल जाता है। इस बात के लिये तो कुछ उपाय ही नहीं है, कि आधिभौतिकवादी अपनी बनाई हुई मयांदा से स्वयं बाहर नहीं जा सकते । परन्तु हमारे शास्त्रकारों की दृष्टि इस संकुचित मर्यादा के परे पहुंच गई है और इसलिये उन्हों ने आध्या- त्मिक दृष्टि से ही कर्मयोगशास्त्र की पूरी पूरी उपपत्ति दी है। इस उपपत्ति की चर्चा करने के पहले कर्म-अकर्म-परीक्षा के एक और पूर्व पक्ष का भी कुछ विचार कर लेना भावश्यक है, इसलिये अव उसी पन्थ का विवेचन किया जायगा।
- Prolegomena to Ethics, Book I; Kant's Metaphysics of
Jorals (trans. by Abbot in Kant's Theory of Ethics ). .