पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१५८

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सुखदुःखविवेक। करने लगा। एक दिन प्रह्लाद ने उससे कहा कि शील (सत्य तथा धर्म से चलने का स्वभाव) ही प्रैलोक्य का राज्य पाने की कुंजी है और यही श्रेय है। अनंतर, जय प्रहाद ने कहा कि मैं तेरी सेवा से प्रसा हूँ, तू वर माँग, तय ग्राहाण-वेपधारी इंद्र ने यही वर माँगा कि "आप अपना शील मुझे दे दीजिये । " प्रह्लाद के तथास्तु' कहते ही उसके शील' के साथ धर्म, सत्य, वृत्त, श्री अथवा ऐश्वर्य धादि सब देवता उसके शरीर से निकल कर इंद्र के शरीर में प्रविष्ट हो गये। फलतः इंदापना राज्य पा गया। यह प्राचीन कथा भीष्म ने युधिष्ठिर से महाभारत के शांतिपर्व (१२४) में कही है। इस सुंदर कथा से हमें यह बात साफ मालूम हो जाती है, कि केवल ऐश्वर्य की अपेक्षा केवल आत्मज्ञान की योग्यता भले ही अधिक हो, परन्तु जिसे इस संसार में रहना है उसको अन्य लोगों के समान ही स्वयं अपने लिये, तथा अपने देश के लिये, ऐधिक समृद्धि प्राम कर लेने की आवश्यकता पौर नैतिक एक भी है। इसलिये जब यह प्रश्न उठे कि इस संसार में मनुष्य का सर्वोतम ध्येय या परम उदेश क्या है, तो हमारे कर्मयोगशास्त्र में अन्तिम उत्तर यही मिलता है कि शांति और पुष्टि, प्रेम और श्रेय अथवा ज्ञान और ऐश्वर्य दोनों को एक साथ प्राप्त करो। सोचने की बात है,.कि जिन भगवान् से बढ़ कर संसार में कोई श्रेष्ठ नहीं, और जिनके दिखलाये हुए मार्ग में अन्य सभी लोग चलते हैं (गी. ३. २३), उन भगवान ने ही क्या ऐश्वर्य और सम्पत्ति को छोड़ दिया है? ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः । शानवैराग्ययोथैव पण्णां भग इतरिणा || अर्थात् " समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, संपत्ति, ज्ञान और पैराग्य-इन छः वातों को 'मग' कहते हैं " भग शब्द की ऐसी व्याख्या पुराणों में है (विष्णु ६. ५. ७४) । कुछ लोग इस श्लोक के रोधयं शब्द का अर्थ योगधर्य किया करते हैं, क्योंकि श्री अर्थात् संपत्तिसूचक शब्द मागे प्राया है। परंतु व्यवहार में ऐश्वर्य शब्द में सत्ता, यश और संपत्ति का, तथा ज्ञान में वैराग्य और धर्म का समावेश हुआ करता है, इससे हम बिना किसी बाधा के कह सकते हैं कि लौकिक दृष्टि से उक्त श्लोक का सब अर्थ ज्ञान और ऐधर्य इन्हीं दो शब्दों से व्यक्त हो जाता है। और जयकि स्वयं भगवान ने ही ज्ञान और ऐश्वर्य को अंगीकार किया है, तब हमें भी अवश्य करना चाहिये (गी. ३. २१; मभा. शा. ३४१. २५) । कर्मयोग मार्ग का सिद्धान्त यह कदापि नहीं, कि कोरा यात्मज्ञान ही इस संसार में परम साध्य यस्तु है। यह तो संन्यास मार्ग का सिद्धान्त है, जो कहता है कि संसार दुःखमय है, इसलिये उसको एकदम छोड़ ही देना चाहिये । भिन्न भिन्न मार्गों के इन सिद्धान्तों को एकत्र करके गीता के अर्थ का अनर्थ करना उचित नहीं है । सरण रहे, गीता का ही कथन है कि ज्ञान के विना केवल ऐश्वर्य सिवा आसुरी संपत् के और कुछ नहीं है। इसलिये यही सिद्ध होता है, कि ऐश्वर्य के साथ ज्ञान, और