गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाख । के लिये, उस आत्मा के स्वरूप का विचार करना पड़ता है जिसे मन और बुद्धि- द्वारा स्वयं अपना और वाह्य सृष्टि का ज्ञान होता है। और, ज्याही यह विचार किया जायगा त्योंही स्पट मालूम हो जायगा, कि पशु और मनुष्य के लिये विष- योपभोग-सुख तो एक ही सा है, परंतु इसकी अपंज्ञा मन और बुद्धि के अत्यन्त उदात्त व्यापार में तथा शुद्धावस्था में जो सुख है वही मनुष्य का श्रेष्ट और शायंतिक सुख हैं। यह सुख मात्मवश है; इसकी प्राप्ति किसी वाह्य दस्तु पर अवलवित नहीं; इसी प्राप्ति के लिये दूसरों के सुख को न्यून भरने की भी कुछ अावश्यकता नहीं है। यह सुख अपने ही प्रयत्न से इसी को मिलता है और ज्या ज्यों हमारी उन्नति होती जाती है लॉ त्यों इस सुख का स्वरूप भी अधिकाधिक शुद्ध और निर्मल होता चला जाता है। भर्तृहरि ने सच कहा है कि " मनसि च परितुष्टे कोऽयवान् को दरिद्रः" मन के प्रसन्न होने पर क्या दरिद्रता और क्या अमीरी- दोनों समान ही है। प्लेटो नामक प्रलिए यूनानी तत्त्ववेत्ता ने भी यह प्रतिपादन किया है कि शारीरिक (अर्थात पाय अथवा प्राधिभौतिक) सुख की अपेक्षा मन का लुख श्रेष्ठ है, और मन के सुखों से मी बुद्धिग्राहा (अर्थात् परम आध्यात्मिक) सुख अत्यन्त श्रेष्ठ है । इसलिये यदि हम अभी मोक्ष के विचार को छोड़ दें, तो भी यही सिद्ध होता है कि जो बुद्धि आत्मविचार में निमग्न हो इसे ही परम सुख मिल सकता है। इसी कारण भगवद्गीता में सुख के (साविक, राजस और तानस ) तीन मंद किये गये हैं, और इनका लक्षण भी बतलाया गया है, यथाः- यात्मनिष्ट बुद्धि (थर्थात सब भूतों में एक ही आत्मा को जान कर, आत्मा के उसी सच्चे स्वरूप में रत होनेवाली वुद्धि) की प्रसन्नता से जो आध्यात्मिक सुख प्राप्त होता है वटी श्रेष्ठ और सात्विक सुख है-" तदुख साचिकं प्राक्त आत्मबुद्धि-प्रसा- दनन् ” (गी. १८.३७); जो आधिभौतिक सुख इंद्रियों और इंद्रियों के विषयों से होते हैं वे सात्विक सुखों से कम दर्जे के होते हैं और राजस कहलाते हैं (गी. ५८.३८); और जिस सुख से चित्त को मोह होता है तथा जो सुख निद्रा या आलस्य से उत्पन होता है उसकी योग्यता तामस अर्थात् कनिष्ट श्रेणी की है। इस प्रकरण के प्रारम्भ में गीता का जो श्लोक दिया है, उसका यही तात्पर्य है। और गीता (६.२२) में कहा ही है कि इस परम सुख का अनुभव मनुष्य को यदि एक बार मी हो जाता है तो फिर उसकी यह सुखमय स्थिति कमी नहीं डिगने पाती, कितने ही भारी दुःख के ज़बरदस्त धके क्यों न लगते रहें। यहवात्य- न्ति सुख स्वर्ग के भी विषयोपभाग-सुख में नहीं मिल सकता; इसे पाने के लिये पहले अपनी बुद्धि प्रसन्न होनी चाहिये । जो मनुष्य बुद्धि को प्रसन्न करने की युक्ति को विना सोचे-समझे केवल विपयोपभोग में ही निमग्न हो जाता है, उसका सुख अनित्य और क्षणिक होता है । इसका कारण यह है, कि नो इंद्रिय- सुख आज है वह कल नहीं रहता । इतना ही नहीं; किंतु जो बात हमारी Republic, Book L. .
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१५५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।