सुखदुःखविवेक। १०६ कोई ब्राह्मण कहने लगे कि मुझे जितना ज्ञान प्राप्त हो चुका है उसी से मुझे संतोप है, तो वह स्वयं अपना नाश कर धैठेगा । इसी तरह यदि कोई वैश्य या शूद्र,अपने अपने धर्म के अनुसार जितना मिला है उतना पाकर ही,सदा संतुष्ट बना रहे तो उसकी भीवही दशा होगी। सारांश यह है कि असंतोपसवभावी उत्कर्षका, प्रयत्न का ऐश्वर्य का और मोक्ष का मी बीज है। में इस यात का सदैव ध्यान रखना चाहिये कि यदि इम इस असंतोप का पूर्णतया नाश कर टालेंगे, तो इस लोक और परलोक में भी हमारी दुर्गति होगी। श्रीकृपा का उपदेश सुनते समय जब अर्जुन ने कहा कि " भूयः कथय तृप्तिाह शरावतो नास्ति मेऽमृतम् "(गी. १०.१८) अर्थात प्राप के अमृततुल्य भापण को सुन कर मेरी तृप्ति होती ही नहीं, इसलिये प्राप फिर भी अपनी विभूतियों का वर्णन कीजिये -तव भगवान् ने फिर से अपनी विभूतियों का वर्णन प्रारम्भ किया, उन्हों ने ऐसा नहीं कहा, कित, अपनी इच्छा को वश में कर, असंतोप या अतृप्ति पछी यात नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि योग्य और कल्याणकारक बातों में उचित असंतोप का होना भगवान् को भी इस है। भर्तृहरि का भी इसी प्राशय का एक श्लोक है यथा “ यशसि चाभिरुचिर्व्यसन श्रुतौ " अर्थात् रुचि या इच्छा अवश्य होनी चाहिये, परंतु वह यश के लिये ही और व्यसन भी होना चाहिये, परंतु वह पिया का हो, अन्य बातों का नहीं । काम-क्रोध आदि विकारों के समान ही असंतोप को भी अनिवार्य नहीं होने देना चाहिय; यदि वह अनिवार्य हो जायगा तो निस्संदेश हमारे सर्वस्व का नाश कर टालेगा । इसी हेतु से, फेवल विपयोपभोग की प्रीति के लिये नृपणा पर तृप्णा लाद कर और एक आशा के बाद दूसरी माशा रख कर सांसारिक सुखों के पीछे हमेशा भटकनेवाले पुरुषों की सम्पत्ति को, गीता के सोलहवं अध्याय में, "मासुरी संपत्ति" फहा है। ऐसी रात दिन की हाय हाय करते रहने से मनुष्य के मन की सात्विक पत्तियों का नाश हो जाता है, उसकी अधोगति होती है, और तृष्णा की पूरी तृप्ति होना असंभव होने के कारण कामोपभोग-वासना नित्य प्राधिकाधिक बढ़ती जाती है तथा वह मनुष्य अंत में उसी दशा में मर जाता है। परंतु, विपरीत पन में तृष्णा और असंतोप के इस दुष्परिणाम से बचने के लिये सब प्रकार की तृष्णाओं के साथ सब कर्मों को एकदम छोड़ देना भी सात्यिक मार्ग नहीं है। उक्त कथना- नुसार तृपणा या असंतोप भावी कप का यीज है। इसलिये चौर के डर से साह को ही मार डालने का प्रयत्न कभी नहीं करना चाहिये । उचित मार्ग तो यही है कि हम इस बात का भली भाँति विचार किया करें कि किस तृष्णा या किस असं- तोप से हमें दुःख होगा; और जो विशिष्ट प्राशा, तृष्णा या असंतोष दुःखकारक हो उसे छोड़ दें। उनके लिये समस्त कर्मों को छोड़ देना उचित नहीं है। केवल दुःखकारी पाशात्रों को ही छोड़ने और स्वधर्मानुसार कर्म करने की इस युक्ति या कौशल को ही योग अथवा कर्मयोग कहते है (गी. २. ५०); और यही गीता का मुख्यतः प्रतिपाय विपय है, इसलिये यहाँ थोड़ासा इस बात का और
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