पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१४७

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१०८ गीतारहस्य भयदा कर्मयोगशास्त्र । अर्थात् असंतोष का अन्त नहीं है और संतोप ही परम सुख है । जैन और घौद्ध धर्मों की नीय भी इसी तत्व पर दानी गई है तथा पश्चिमी देशों में शोपेनहर • ने अर्वाचीन काल में इसी मत का प्रतिपादन किया है। परंतु इसके विद यह प्रश्न भी किया जा सकता है कि, जिहा से कमी कमी गालियाँ वगैरह अपशब्दों का उचारण करना पड़ता है, तो क्या जीम को ही समूल काट कर फेंक देना चाहिये ? अग्नि से कमी कभी मकान जल जाते है तो पया लोगों ने अग्नि का सर्वया त्याग ही कर दिया है या उन्हों ने भोजन बनाना ही छोड़ दिया है ? प्राप्ति की यात कौन कहे, जय हम विद्युत्-शक्ति को भी मर्यादा में रख कर उसको नित्य व्यवहार के उपयोग में लाते हैं, तो उसी तरह तृष्णा और असन्तोप की भी सुव्यवस्थित मर्यादा बाँधना कुछ संभव नहीं है । ; यदि असन्तोष साँश में और सभी समय हानिकारक होता, तो मात दुसरी थी; परंतु विचार करने से मालूम होगा कि सचमुच यात ऐसी ई नहीं | असन्तोप का यह प्रर्थ विलकुल नहीं कि किसी चीज़ को पाने के लिये रात दिन हाय हाय करते रह, रोतेरह या न मिलने पर सिर्फ शिकायत ही दिया करें । ऐसे असन्तीप को शास्त्रकारों ने भी निंद्य माना है। परंतु उस इच्छा का मूलभूत असन्तोप कमी निन्दनीय नहीं कहा जा सकता जो यह कहे-कि तुम अपनी वर्तमान स्थिति में ही पड़े पड़े सड़ते मत रही, किंतु उसमें यथाशक्ति शांत और समचित्त से अधिका. धिक सुधार करते जाम्रो तथा शक्ति के अनुसार उसे उत्तम अवस्या में ले जाने का प्रयत्न करी । जो समाज चार वणों में विभक्त है उसमें ग्रामणों ने ज्ञान की, क्षत्रियों ने ऐश्चर्य की और वैश्यों ने धन-धान्य की उक्त प्रकार की इच्छा या वासना छोड़ दी तो कहना नहीं होगा कि वह समाज शीघ्र ही अधोगति में पहुंच जायगा। इसी अभिप्राय को मन में रख कर प्यासजी ने (शा. २३.६) युधिष्टिर से कहा है कि “यसो विद्या समुत्थानमसंतोषः श्रियं प्रति" अर्थात् यज्ञ, विद्या,उद्योग और ऐश्वर्य के विषय में असंतोप (रखना) क्षत्रिय के गुगा है। इसी तरह विदुला ने भी अपने पुत्र को उपदेश करते समय (ममा. स. ३२. ३३) कहा है कि "संतोपो वैश्रियं हन्ति" अर्थात् संतोप से धयं का नाश होता है और किसी अन्य अवसर पर एक वाक्य (ममा. सभा. ५५.११) मैं यह भी कहा गया है कि " असंतोपः श्रियो मूलं" अर्थात् असंतोप ही ऐश्वर्य का मूल है। वासणु- धर्म में संतोप एक गुण बतलाया गया है सही; परंतु उसका अर्थ केवल यही है कि वह चातुर्वण्र्य-धर्मानुसार द्रस्य और ऐहिक ऐश्वर्य के विषय में संतोप रखे । यदि

  1. Schopenhaner's World as TVill and Representation,

Vol. II Chap. 46. संसार के दुःखमयत्व का, शोपनहर कृत, वर्गन अत्यन्त ही सरस है। मूल ग्रंथ जर्मन भाषा में है और उसका भाषान्तर अंग्रेजी में भी हो चुका है। t Of." Unhappiness is the cause of progress.” Dr. paul Carus' The Ethical Problem, p. 251 ( 2nd Ed.).