सुखदुःखविवेक। भपेक्षा हर कितना बढ़ गया है। किन्तु जब हमें सुख-दुःख की मात्रा का ही निर्णय करना है तो हमें किसी काल का विचार न करके सिर्फ यही देखना चाहिये कि उक्त अपूर्णा के अंश और हर में कैसा संबंध है। फिर हमें आप ही प्राप मालूम हो जायगा कि इस अपूर्णांक का पूर्ण होना असंभव है । " न जातु कामः का- मानां" इस मनु-वचन का (२.६५) भी यही अर्थ है । संभव है कि बहुतेरों को सुख-दुःख नापने की गणित की यह रीति पसन्द न हो, क्योंकि यह सातामापक यंत्र के समान कोई निश्चित साधन नहीं है । परन्तु इस युक्तिवाद से प्रगट हो जाता है कि इस बात को सिद्ध करने के लिये भी कोई निश्चित साधन नहीं, कि "संसार सुख ही अधिक है। "यह आपत्ति दोनों पक्षों के लिये समान ही है, इसलिये उक्त प्रतिपादन के साधारण सिद्धान्त मैं-अर्थात् उस सिद्धान्त में जो सुखोपभोग की अपेक्षा सुखेच्छा की अमर्यादित धृद्धि से निष्पन्न होता है-यह भापत्ति कुछ बाधा नहीं डाल सकती। धर्म-ग्रंथों में तथा संसार के इतिहास में इस सिदान्त के पोषक अनेक उदाहरण मिलते हैं। किसी ज़माने में स्पेन देश में मुसलमानों का राज्य था। वहाँ तीसरा अब्दुल रहमान नामक एक बहुत ही न्यायी और पराक्रमी यादशाह हो गया है। उसने यह देखने के लिये, कि मेरे दिन फैसे कटते हैं, एक रोज़नामचा बनाया था, जिसे देखने से अन्त में उसे यह ज्ञात हुआ कि पचास वप के शासन काल में उसके केवल चौदह दिन सुखपूर्वक बीते ! किसी ने हिसाथ करके बतलाया है कि संसार भर के--विशेषतः यूरोप के प्राचीन और प्राचीन समी- तत्वज्ञानियों के मतों को देखो तो यही मालूम होगा कि उनमें से प्रायः माधे लोग संसार को दुःखमय कहते हैं और प्रायः आधे उसे सुखमय कहते हैं। अर्थात् संसार को सुखमय तथा दुःखमय कहनेवालों की संख्या प्रायः वरावर । यदि इस तुल्य संख्या में हिंदू तत्वज्ञों के मतों को जोड़ दें तो कहना नहीं होगा कि संसार को दुःखमय माननेवालों की संख्या ही अधिक हो जायगी। संसार के सुख-दुःखों के उक्त विवेचन को सुन कर कोई संन्यासमार्गीय पुरुष कह सकता है, कि यपपि तुम इस सिद्धान्त को नहीं मानते कि " सुख कोई सच्चा पदार्थ नहीं है फलतः सप तृष्णात्मक कमों को छोड़ बिना शान्ति नहीं मिल सकती; तपापि तुम्हारे ही कथनानुसार यह बात सिद्ध है कितृष्णासे असंतोष और असंतोष से दुःख उत्पन्न होता है तब ऐसी अवस्था में यह कह देने में क्या हर्ज है, कि इस असंतोप को दूर करने के लिये, मनुष्य को अपनी सारी तृष्णामों का और सन्ही के साथ सब सांसारिक कमी का भी त्याग करके सदा सन्तुष्ट ही रहना चाहिये--फिर तुम्हें इस बात का विचार नहीं करना चाहिये कि उन कर्मों को तुम परोपकार के लिये करना चाहते हो या स्वार्थ के लिये । महाभारत (वन. २१५. २२) में भी कहा है कि " असंतोषस्य नास्त्यन्त
- loors in Spain, p. 128. Story of the Nations Series )
† Maomillan's Promotion of Happiness, p. 26. - परमं सुखम् "