१०४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । केवल मनुष्य-जन्म पाने के सौभाग्य को और (उसके बाद के) मनुष्य के सांसारिक व्यवहार या 'जीवन' को भ्रमवश एक ही नहीं समझ लेना चाहिये। केवल मनुष्यत्व, और मनुष्य के नित्य व्यवहार अथवा सांसारिक जीवन, ये दोनों भिन्न भिन्न वाते हैं। इस भेद को ध्यान में रख कर यह निश्चय करना है कि, इस संसार में श्रेष्ठ नरदेह-धारी प्राणी के लिये सुख अधिक है अथवा दुःख ? इस प्रश्न का यथार्थ निर्णय करने के लिये, केवल यही सोचना एकमात्र साधन या उपाय है, कि प्रत्येक मनुष्य के “ वर्तमान समय की " वासनाओं में से कितनी वासनाएँ सफल हुई और कितनी निष्फल । “ वर्तमान समय की " कहने का कारण यह है कि, जो बातें सभ्य या सुधरी हुई दशा के सभी लोगों को प्राप्त होजाया करती है उनका नित्य व्यवहार में उपयोग होने लगता है और उनसे जो सुख हमें मिलता है, उसे हम लोग भूल जाया करते हैं; एवं जिन वस्तुओं को पाने की नई इच्छा उत्पन्न होती है उनमें से जितनी इमें प्राप्त हो सकती हैं, सिर्फ उन्हीं के आधार पर हम इस संसार के सुख-दुःखों का निर्णय किया करते हैं। इस बात की तुलना करना, कि हमें वर्तमान काल में कितने सुख-साधन उपलब्ध हैं और सौ वर्ष पहले इनमें से कितने सुख-साधन प्राप्त होगये थे और इस बात का विचार करना कि आज के दिन मैं सुखी हूँ या नहीं ये दोनों बातें अत्यंत भिन्न हैं। इन बातों को समझने के लिये उदाहरण लीजिये; इसमें संदेह नहीं कि सौ वर्ष पहले की बैलगाड़ी की यात्रा से वर्तमान समय की रेलगाड़ी की यात्रा अधिक सुखकारक है; परन्तु अब इस रेलगाड़ी से मिलनेवाले सुख के सुखत्व' को हम लोग भूल गये हैं और इसका परिणाम यह देख पड़ता है कि किसी दिन यदि डाक देर से आती है और हमारी चिही हमें समय पर नहीं मिलती तो हमें अच्छा नहीं लगता-कुछ दुःख ही सा होता है। अतएव मनुष्य के वर्तमान समय के सुख-दुःखों का विचार, उन सुख- साधनों के आधार पर नहीं किया जाता कि जो उपलब्ध हैं किन्तु यह विचार मनुष्य की 'वर्तमान' आवश्यकताओं (इच्छाओं: या वासनाओं) के आधार पर ही किया जाता है। और, जब हम इन आवश्यकताओं, इच्छाओं या वासनाओं का विचार करने लगते हैं, तव मालूम हो जाता है कि उनका तो कुछ अन्त ही नहीं वे अनन्त और अमर्यादित हैं। यदि हमारी एक इच्छा आज सफल हो जाय तो कल दूसरी नई इच्छा उत्पन्न हो जाती है, और मन में यह भाव उत्पन्न होता है कि वह इच्छा भी सफल हो । ज्यों ज्यों मनुष्य की इच्छा या वासना सफल होती जाती है त्यों त्यों उसकी दौड़ एक कदम आगे ही बढ़ती चली जाती है, और, जवकि यह वात अनुभव-सिद्ध है कि इन सव इच्छाओं या वासनाओं का सफल होना सम्भव नहीं, तब इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य दुःखी हुए विना रह नहीं सकता । यहाँ निम्न दो वातों के भेद पर अच्छी तरह ध्यान देना चाहिए: (१) सब सुख केवल तृष्णा-क्षय-रूप ही है; और (२) मनुष्य को कितना ही सुख मिले तो भी वह असंतुष्ट ही रहता है। यह कहना एक बात है, कि प्रत्येक ।
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