- सुखदुःखविवेफ। १०३ है ? तात्पर्य यह है कि 'मनुष्य या पशु-पक्षी आत्महत्या नहीं करते ', इस बात से यह भ्रामक अनुमान नहीं करना चाहिए कि उनका जीवन सुखमय है । सञ्चा अनुमान यही हो सकता है कि, संसार कैसा ही हो, उसकी कुछ अपेक्षा नहीं; सिर्फ अचेतन अर्थात् जड़ अवस्था से सचेतन यानी सजीव अवस्था में लाने ही से अनु- पम आनंद मिलता है, और उसमें भी मनुष्यत्व का आनंद तो सय से श्रेष्ठ है। हमारे शासकारों ने भी कहा है:- भूतानां प्राणिनः श्रेष्ठाः प्राणिनां बुद्धिजीविनः । बुद्धिमत्सु नराः श्रेष्ठा नरेपु वाणाः स्मृताः ॥ ग्राहाणेषु च विद्वांस: विद्वत्सु कृतबुद्धयः। कृतबुद्धिपु कतीरः कर्तृपु ब्रहावादिनः ॥ अर्थात् "अचेतन पदार्थों की अपेक्षा सचेतन प्राणी श्रेष्ठ हैं। सचेतन प्राणियों में बुद्विमान् , बुद्धिमानों में मनुष्य, मनुष्यों में ब्राहाण, ब्राह्मणों में विद्वान्, विद्वानों मैं कृतयुन्दि (वे मनुष्य जिनकी बुद्धि सुसंस्कृत हो), कृतबुद्धियों में कर्ता (काम करनेवाले ), और कर्ताओं में वसवादी श्रेष्ठ है ।" इस प्रकार शाखौ (मनु. १. ६६, ६७; ममा. उद्यो. ५. १ और २) में एक से दूसरी बढ़ी हुई श्रेणियों का जो वर्णन है, उसका भी रहस्य वही है जिसका उलेख अपर किया गया है और उसी न्याय से भापा-अन्यों में भी कहा गया है कि चौरासी लाख योनियों में नरदेह श्रेष्ठ है, नरों में सुमुक्षु श्रेष्ठ है, और मुमुत्तुओं में सिद्ध श्रेष्ठ है । संसार में जो यह कहावत प्रचलित है कि " सब से अपनी जान अधिक प्यारी होती है उसका भी कारण वही है जो ऊपर लिखा गया है और इसी लिये संसार के दुःखमय होने पर भी जय कोई मनुष्य मात्महत्या करता है तो उसको लोग पागल कहते हैं और धर्मशास्त्र के अनुसार वह पापी समझा जाता है (मभा. कर्ण. ७०. २८); .तथा प्रात्महत्या का प्रयत्न भी कानून के अनुसार जुर्म माना जाता है। संक्षेप में यह सिद्ध हो गया कि मनुष्य आत्महत्या नहीं करता '-इस बात से संसार के सुखमय होने का अनुमान करना उचित नहीं है । ऐसी अवस्था में हम को, 'यह संसार सुखमय है या दुःखमय?' इस प्रश्न का निर्णय करने के लिये, पूर्वकर्मानुसार नरदेह-प्राप्ति-रूप अपने नैसर्गिक भाग्य की बात को छोड़ कर, केवल इसके पश्चात की अर्थात इस संसार ही की बातों का विचार करना चाहिये । 'मनुष्य आत्महत्या नहीं करता, बल्कि वह जीने की इच्छा करता रहता है। यह तो सिर्फ संसार की प्रवृत्ति का कारण है। आधिभौतिक पंडितों के कथनानुसार, संसार के सुखमय होने का, यह कोई सुबूत या प्रमाण नहीं है। यह बात इस प्रकार कही जा सकती है कि, आत्महत्या न करने की बुद्धि स्वाभाविक है, वह कुछ संसार के सुख-दुःखों के तारतम्य से उत्पन्न नहीं हुई है और, इसी लिये, इससे यह सिद्ध हो नहीं सकता कि संसार सुखमय है।
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