पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१४१

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6 १०२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । सुख अधिक है या दुःख ? जो पश्चिमी पण्डित आधिभौतिक सुख को ही परम साध्य मानते हैं, उनमें से बहुतेरों का कहना है, कि यदि संसार में सुख से दुःख ही अधिक होता तो, (सय नहीं तो) अधिकांश लोग अवश्य ही आत्महत्या कर डालते; क्योंकि जब उन्हें मालूम हो जाता कि संसार दुःखमय है तो वे फिर उसमें रहने की झमट में क्यों पड़ते ? बहुधा देखा जाता कि मनुष्य अपनी आयु अर्थात् जीवन से नहीं अवता; इसलिये निश्चयपूर्वक यही अनुमान किया जा सकता है कि इस संसार में मनुष्य को दुःख की अपेक्षा सुख ही अधिक मिलता है और इसीलिये धर्म-अधर्म का निर्णय भी सुख को ही सव लोगों का परम साध्य समझ कर किया जाना चाहिये । अव यदि उपर्युक्त मत की अच्छी तरह जाँच की जाय तो मालूम हो जायगा, कि यहाँ आत्महत्या का जो सम्बन्ध सांसारिक सुख के साथ जोड़ दिया गया है वह वस्तुतः सत्य नहीं है। हाँ, यह बात सच है कि कभी कभी कोई मनुष्य संसार से त्रस्त हो कर आत्महत्या कर डालता है। परन्तु सब लोग उसकी गणना अपवाद में अर्थात् पागलों में किया करते हैं। इससे यही बोध होता है कि सर्व- साधारण लोग भी 'प्रात्महत्या करने या न करने' का संबंध सांसारिक सुख के साथ नहीं जोड़ते, किंतु वे उसे (अर्थात् आत्महत्या करने या न करने को) एक स्वतंत्र बात समझते हैं। यदि असभ्य और जंगली मनुष्यों के उस 'संसार' या जीवन का विचार किया जावे, जो सुधरे हुए और सभ्य मनुष्यों की दृष्टि से अत्यंत कष्टदायक और दुःखमय प्रतीत होता है, तो भी वही अनुमान निप्पन्न होगा जिसका उल्लेख ऊपर के वाक्य में किया गया है। प्रसिद्ध सृटिशास्त्रज्ञ चार्ल्स डार्विन ने अपने प्रवास-ग्रंथ में कुछ ऐसे जंगली लोगों का वर्णन किया है जिन्हें उसने दक्षिण अमेरिका के अत्यन्त दक्षिण प्रान्तों में देखा था। उस वर्णन में लिखा है, कि ये असभ्य लोग-श्री-पुरुप सब-कठिन जाड़े के दिनों में भी नंगे घूमते रहते हैं। इनके पास अनाज का कुछ भी संग्रह न रहने से इन्हें कभी कभी भूखों मरना पड़ता है, तथापि इनकी संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जाती है ! देखिये जंगली मनुष्य भी अपनी जान नहीं देते; परंतु क्या इससे यह अनुमान किया जा सकता है, कि उनका संसार या जीवन सुखमय है ? कदापि नहीं । यह यात सच है कि वे आत्महत्या नहीं करते; परंतु इसके कारण का यदि सूक्ष्म विचार किया जाये तो मालूम होगा, कि हर एक मनुष्य को-चाहे वह सभ्य हो या असभ्य-केवल इसी बात में अत्यंत अानंद मालूम होता है कि " मैं पशु नहीं हूँ, मनुष्य हूँ"; और अन्य सब सुखों की अपेक्षा मनुष्य होने के सुख को वह इतना अधिक महत्त्वपूर्ण समझता है, कि यह संसार कितना भी कष्टमय क्यों न हो, तथापि वह उसकी ओर ध्यान नहीं देता और न वह अपने इस मनुष्यत्व के दुर्लभ मुख को खो देने के लिये कभी तैयार रहता है। मनुष्य की बात तो दूर रही; पशु-पक्षी भी प्रात्महत्या नहीं करते । तो, क्या इससे हम यह कह सकते हैं, कि उनका भी संसार या जीवन सुखमय

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