गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । बुद्धि के साथ पति और उत्साह के गुणों का होना भी आवश्यक है । इस विषय पर विस्तृत विवेचन आगे किया जायगा । यहाँ हमको केवल यही जानना है, कि 'सुख' और 'दुःख' दोनों भिन्न घृत्तियाँ हैं, या उनमें से एक दूसरी का प्रभाव मात्र ही है । इस विषय में गीता का मत, उपर्युक्त विवेचन से, पाठकों के ध्यान में आ ही गया होगा। क्षेत्र' का अर्थ बतलाते समय 'सुख' और 'दुःख' की अलग अलग गणना की गई है (गी. १३.६); बल्कि यह भी कहा गया है, 'सुख' सत्वगुण का और तृप्णा' रजोगुण का लक्षण है (गी. १४.६,७); और सत्वगुण तथा रजोगुण दोनों अलग अलग हैं । इससे भी भगवद्गीता का यह मत साफ मालूम हो जाता है, कि सुख और दुःख दोनों एक दूसरे के प्रतियोगी हैं और भिन्न भिन्न दो घृत्तियाँ हैं । अठारहवें अध्याय में राजस त्याग की जो न्यूनता दिखलाई है, कि "कोई भी काम यदि दुःखकारक है तो उसे छोड़ देने से त्यागफल नहीं मिलता, किंतु ऐसा त्याग राजस कहलाता है' (गी. १८.८), वह भी इस सिद्धांत के विरुद्ध है कि " सब सुख तृष्णा-क्षय भूलक ही है।" अब यदि यह मान ले कि सब सुख तृष्णा-क्षय-रूप अथवा दुःखाभावरूप नहीं हैं, और यह भी मान लें कि सुख-दुःख दोनों स्वतंत्र वस्तु हैं, तो फिर (इन दोनों वेदनाओं के परस्परविरोधी या प्रतियोगी होने के कारण) यह दूसरा प्रश्न उपस्थित होता है कि जिस मनुष्य को दुःख का कुछ मी अनुभव नहीं है, उसे सुख का स्वाद मालूम हो सकता है या नहीं? कुछ लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि दुःख का अनुभव हुन विना सुख का स्वाद ही नहीं मालूम हो सकता । इसके विपरीत, स्वर्ग के देवताओं के नित्यसुख का उदाहरण दे कर, कुछ पंदित प्रति- पादन करते हैं कि सुख का स्वाद मालूम होने के लिये दुःख के पूर्वानुभव की कोई आवश्यकता नहीं है । जिस तरह किसी भी खट्टे पदार्थ को पहले चखे बिना ही शहद, गुड़, र, आम, केला इत्यादि पदार्थों का भिन्न भिन्न मीठापन मानूम हो जाया करता है उसी तरह, सुख के भी अनेक प्रकार होने के कारण पूर्वदुःखानुभव के विना ही भिन्न भिन्न प्रकार के सुखों (जैसे, रुईदार गद्दी पर से उठ कर परों की गद्दी पर बैठना इत्यादि) का सदैव अनुभव करते रहना भी सर्वथा सम्भव है। परन्तु सांसारिक व्यवहारों को देखने से मालूम हो जायगा, कि यह युक्ति ही निरर्थक है। पुराणों में देवताओं पर भी संकट पड़ने के कई उदाहरण है; और पुण्य का अंश घटते ही कुछ समय के वाद, स्वर्ग-सुख का भी नाश हो जाया करता है, इसलिये स्वर्गीय सुख का उदाहरण ठीक नहीं है । और, यदि ठीक भी हो, तो स्वर्गीय सुख का उदाहरण हमारे किस काम का? यदि यह सत्य मान लें कि “नित्यमेव सुखं स्वर्गे," तो इसी के आगे (ममा. शां. १६०. १४) यह भी कहा है कि " सुखं दुःखमिहोभयम् ” अर्थात् इस संसार में सुख और दुःख दोनों मिश्रित हैं। इसी के अनुसार समर्थ श्रीरामदास स्वामी ने भी कहा है, " हे विचारवान् मनुष्य ! इस बात को अच्छी तरह सोच कर देख ले, कि इस संसार में पूर्ण सुखी कौन
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