पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१३५

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाख । अथवा क्रोध से होनेवाले सुख-दुःखों को भी आखिर मनुष्य अपने ही शरीर या मन के द्वारा भोगता है। अतएव हमने इस अन्य में वेदान्त-अन्यों की परिभाषा के अनुसार सुख-दुःखों का विविध वर्गीकरण नहीं किया है, किन्तु उनके दो ही वर्ग (वाह्य या शारीरिक और आम्यंतर या मानसिक) किये हैं, और इसी वकिरण के अनुसार, हमने इस अन्य ने लव प्रकार के शारीरिक सुख-दुःखों को “आधिनौतिक और सब प्रकार के मानसिक सुख-दुःखों को " आध्यात्मिक" कहा है । वेदान्त अन्यों में जैसा तीसरा वर्ग आधिदैविक ' दिया गया है वैसा हमने नहीं किया है। क्योंकि हमार मतानुसार सुख-दुःखों का शास्त्रीय रीति से विवेचन करने के लिये यह द्विविध वर्गीकरण ही अधिक नुमाते का है । सुख-दुःख का जो विवचन नीचे दिया गया है टसे पढ़ते समय यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिये, कि वेदान्त ग्रन्थों के और हमारे वर्गीकरण में भेद है। सुखदुःखों को चाहे आप विविध मानिये अथवा त्रिविध; इसमें सन्देह नहीं कि दुःख की चाह किसी मनुन्य को नहीं होती । इसी लिये वेदान्त और सांल्य शास्त्र (सां. का. १; गो. ६.२१, २२) में कहा गया है कि, सब प्रकार के दुःखों की अत्यन्त निवृत्ति करना और प्रात्यन्तिक तथा नित्य मुख की प्राप्ति करना ही मनुष्य का परम पुरुषार्य है। जब यह बात निश्चित हो चुकी, कि मनुष्य का पत्म साध्य या उद्देश आत्यन्तिक सुख ही है, तब चे प्रश्न मन में सहज ही उत्पन्न होते हैं कि अत्यन्त, सत्य और नित्य सुन्न किसको कहना चाहिये, उसकी प्राप्ति होना संभव है या नहीं? यदि संभव है तो कब और कैसे ? इत्यादि। और जब हम इन प्रश्नों पर विचार करने लगते हैं, तब सब से पहले यही प्रश्न उठता है कि, नव्यायिकों के घतलाग्ने हुए लक्षण के अनुसार सुख और दुःख दोनों भिन्न भिन्न स्वतंत्र वेदनाएँ, अनुभव या वस्तु हैं अथवा " जो उजेला नहीं. वह अंधेरा " इस न्याय के अनुसार इन दोनों वेदनात्रों में से एक का अभाव होने पर दूसरी संज्ञा का उपयोग किया जाता है ? भर्तृहरि ने कहा है कि " प्यास से जय मुँह सूख जाता है तब हम उस दुःख का निवारण करने के लिये पानी पीते हैं, भूखसे जब हम व्याकुल हो जाते हैं तब मिष्टान खा कर उस न्यया को हटाते हैं और काम-वासना के प्रदीप्त होने पर उसको स्त्रीसंगात तृप्त करते हैं। इतना कहकर अन्त में कहा है कि:- प्रतीकारो व्याघः तुम्वमिति विपर्यस्यति जनः । " किसी व्याधि अथवा दुःख के होने पर उसका जो निवारण या प्रतीकार किया जाता है उसी को लोग भ्रमवश 'सुख' कहा करते हैं !" दुःख-निवारण के अति- रिक 'सुख' कोई मिन्न वस्तु नहीं है। यह नहीं समझना चाहिये कि उक्त सिद्धान्त मनुष्यों के लिर्फ उन्ही व्यवहारों के विषय में उपयुक्त होता है जो स्वाय ही के लिये किये जाते हैं। पिछले प्रकरण में आनन्दगिरि का यह मत बतलाया ही गया है कि, जब हम किसी पर कुछ उपकार करते हैं तब उसका कारण यही होता